साजिशों के शहर में ठिकाना ढूंढता हूँ
गुज़रे हुए जमाने का फसाना ढूंढता हूँ
कहूँ किससे चल पड़ा सफ़र में अकेला
क्यों गर्दिशों में खुद अफसाना ढूंढता हूँ
दर तेरा नहीं मुनासिब-ए-मंजिल मेरा
जाने क्यूँ आशिकी का बहाना ढूँढता हूँ
दीगर है तुम हो हूर-ए-आफताब कोई
फ़िज़ूल ही इश्क़ का खज़ाना ढूँढता हूँ
टूटकर बिखरा हूँ मैं मगर कोई गम नहीं
बस मयकदे में ही तो पैमाना ढूँढता हूँ
-चंद्र विजय प्रसाद ‘चन्दन’
देवघर,झारखण्ड