एक चेहरा गुलाब के जैसा- नवरंग भारती

नर्म-ओ-नाजुक शबनमी रुख़सार
एक चेहरा गुलाब के जैसा,
झील में हो कंवल खिला जैसे
जैसे दिलकश बाहर की रंगत,
जिससे चैनो-क़रार मिलता है,
जिससे अरमाँ के फूल खिलते हैं
जिससे जज़्बे जवान होते हैं
फसले गुल का सुरूर है जिस में
चाँदनी का भी नूर है जिसमें,
जैसे शाहकार हो मुसव्विर का,
जो कभी ताजमहल लगता है
किसी शायर के तखय्युल की तरह
जो कभी रूहे-ग़ज़ल लगता है,
किसी फनकार का हो फन जैसे
पाक जज़्बों की अन्जुमन जैसे
भोलापन भी है और शरारत भी
नाज़ुकी भी है और हरारत भी
दीदार मुहाल है गोया,
जब भी देखें हो मुख्तलिफ एहसास,
जाविये पर कोई नज़र ना रुके,
जैसे सीमाब का समंदर हो,
मिस्ले यक़ूत दिलनशीं भी है
संगे-मरमर सा वो हसीं भी है
या के मोती है आबदार कोई
देख ले गर हो बेक़रार कोई,
मेरे ख़्वाबों-ख़्याल की तस्वीर
मेरी नवरंग है यही जागीर

-नवरंग भारती