घट फूटा जाकर पनघट पर
हट छूटी जाकर मरघट पर
चिर शैया पर सोयी काया
खटखट ना होती आहट पर
विप्लव में ना होता कलरव
तरु शाख झरे सारे पल्लव
नित लाश जले अरमानों की
धूँ धूँ करके नदिया तट पर
जब लाज विहीन हुआ बंधन
जीवन बिसराया परिसीमन
अब कौन सहारा दे दिल को
सब हँसते हैं घबराहट पर
पर्दा तो गिरता है निश्चित
जब नाटक होता अभिमंचित
मन मीत झुकाता शीश यहाँ
अब मौत खड़ी है चौखट पर
-डॉ उमेश कुमार राठी