पानी से भरी नदी में
यह धार विहँसती
कोई गीत जो आज गूँजता
वह खूब पुराना गाना
बचपन की उन यादों को लेकर
फिर उसी गली में चले गये हो
शायद बहुत पास वह घर है
कितना टूटा भीतर से हारा
कल से कितना अनजान बना मन
गहरे मन की काया
तुमने फिर पास बुलाया
हरियाली में सरसो के
पीले फूल मनोहर
इनकी उज्ज्वल आभा
यह धूप बना मन
कितनी देर से
तुम छत पर आज खड़ी
संध्या की शीतल छाया में
दरवाजे पर दीपक को
खूब खुशी से
तुमने आज जलाया
स्निग्ध रात्रि में पेड़ों पर
पंछी सोये हैं
सुबह पहर यह
मौन आज मुखरित है
कलकल स्वर में जंगल जाग रहा है
-राजीव कुमार झा