देखकर नवजात कल्चर- रकमिश सुल्तानपुरी

हूँ नहीं कवि
व्यर्थ अपनी
लेखनी किस पर चलाऊं
सोचता हूँ
शांति की
छाया कहीं से ढूढ़ लाऊं

भाव में नित
लिप्त होकर
ठूँठ सी दमदार लघुता
संग पाकर
स्वार्थों का
हो गयी ढोंगी मनुजता
आश्वासन
छल रहा है
देखकर नवजात कल्चर
किस नवेली
सभ्यता में
क्षुब्ध हो नवगीत गाउँ

हर किसी का
दर्द सागर
हर किसी के अश्क़ झरने
कौन जिसको
दे सहारा
है सभी को दर्द भरने
यातनाएँ
किन्तु मन को
दे रहीं असहाय पीड़ा ।
वक़्त बहरा
सा खड़ा है
वक़्त को कैसे सुनाऊँ

देख रजनी
की कुलांचे
शाम ने घूँघट उतारा
आ गया
नवगीत सुनने
स्वर्ग से वो एक तारा
शांत चिड़ियाँ
सँग चिरंगुन
आहटें करती इशारा
दर्द दिल के
गुनगुनाकर
दर्द सारा भूल जाऊँ

-रकमिश सुल्तानपुरी
भदैयाँ, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश