वक़्त कहाँ है ज़र होने तक
मालिक के नौकर होने तक
उम्र गवां देता है खुद की,
एक घरौंदा घर होने तक
साथ रहेगा तेरा मेरा,
नदियों के सागर होने तक
लब ठहरे थे यार लबों पे,
हर्फ़ों के आख़र होने तक
तन्हाई में कुछ दिन जी लो,
अश्क़ों के कमतर होने तक
ज़ुल्म किया था उसने काफ़ी,
इस दिल के पत्थर होने तक
‘रकमिश’ इश्क़ मुकम्मल होगा,
दर्दीले मंजर होने तक
-रकमिश सुल्तानपुरी