पेड़ और नारी की प्रकृति एक सी ही है
फल देकर भी मोल चुकाना
पड़ता है हम दोनों को ही।
छोड़ जाते हैं सब एक एक करके
पेंड़ के सूखे पत्तों सा रह जाती हूँ
केवल ठूंठ बनकर,
हाँ मैं ठूंठ ही तो रह जाती हूं।
बिन रिश्तों के बिन अपनों के।
मैं घरौंदा का पेड़ हूँ
जिसके बंटी बंटी शाखाऐं
मुझ तक थम जाती है
तब कभी बेटी कभी बहन
कभी पत्नी कभी माँ के रुप में
संवेदना को टुकडे कर
प्यार की हरियाली बांटते
रह जाती सिर्फ ठूंठ
हाँ केवल ठूंठ ही
तो रह जाती हूँ
फायदे के लिए अपने,
मानव ने रौंद डाला
पेंड़ो को और मुझे पुरुषों ने।
जलती हूँ भीतर ही भीतर
उस दावानल की भांति जो केवल
अपने आप में ही जल राख
बन जाती है मिट कर भी,
दे जाती है उर्वरा शक्ति
मरकर भी निभाती हूँ उन
को जिन्हें पाया है मैंने जन्म के साथ
-अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
महासमुंद, छत्तीसगढ़