आह क्या कहूं मन के अंदर हुमक उठे चहुँ ओर
आ जातीं तुम प्राण सदा ही प्राणों को झकझोर
तुम बनकर आईं थीं मेरी चंद्र किरण पूनम,
अर्ध रात्रि की इस बेला में नयन भिगोते कोर
अब सूनी पलकों पर ठहरे प्रस्तर के प्राचीर
खिंच जातीं नयनों में सुधि की कितनी ही तस्वीर
तुम्हें देखता रहा कल्पना सोता जगता सा
रात्रि स्वप्न के माध्यम तेरा फेरा लगता सा
नील गगन की ऊंचाई से दृष्टि लौट आई
दूर बहुत पर निकट कहीं तुम यह भ्रम होता सा
सुख का स्वर्ग तुम्हारे बिन अब करता बहुत अधीर
खिंच जातीं नयनों में सुधि की कितनी ही तस्वीर
रूठ गए वरदान प्रेम के इधर उधर भटका
मीठे गान बेसुरे लगते अंतरमन खटका
टूट गया निर्मित उर मंदिर जिसमें तुम रहतीं खोकर तुमको इसी भीड़ में प्राण रहा अटका
दुर्दिन के इन अश्रु कणों में मन अधीर की पीर
खिंच जातीं नयनों में सुधि की कितनी ही तस्वीर
बुझे दिया की अग्नि तुल्य कब मिल पाया है त्राण
जहां बिछाए कुसुम कांतिमय वहां मिले पाषाण
स्वप्न परी! कल्पना लोक का आभासित अभिशाप
तुम्हें समर्पित अब तो प्रियवर मेरे नश्वर प्राण
श्वासों की गरिमा से पूजी जाती हुई समीर
खिंच जातीं नयनों में सुधि की कितनी ही तस्वीर
प्रथम प्यार की मधुर स्मृति में बजते उर मंजीर
-पीएस भारती