ऐ मेरे बचपन, क्यूं चला गया तू,
मुझे यूं बिलखता छोड़।
तुझसे ही तो बंधी थी, मेरी माँ के
आंचल की डोर।
छिपकर जिसमें पीती मैं अमृत,
खेलती आंख -मिचोली का खेल।
छांव में जिसके मैं देखती सपने,
अपनी पलकों को खोल।
धूल-धूसरित तन लेकर जब दौड़ी आती,
बांहे फैलाए माँ उठा लेती गोद।
जब कभी बहे आंसू मेरे,
पोंछने को उसे तत्पर रहती,
मां के आंचल की छोर।
करती हुई शैतानियां, बिखेरती मनमानियां,
जब कभी पकड़ी जाती,
बचाने को मुझे खड़ी हो जाती,
माँ, फैलाएं अपने आंचल की डोर।
सिमटी हुई आंचल की छांव तले,
मैं बन जाती शाहंशाह,
सभी गुलाम होते मेरे,
मैं होती उनकी बादशाह।
यूं ही छुपते छुपाते जाने कब हो गई,
जवानी की भोर।
जब खोली मैंने आंखें अपनी,
देखा चारों ओर,
चला गया था बचपन मेरा,
छूट गई थी, माँ के आंचल की डोर।
-अनिता कुमारी
हिंदी शिक्षिका
बेंगलुरु ,कर्नाटका