बसर हो सके वो शिखर भी नहीं है
डगर में पखेरू शज़र भी नहीं है
दिवाकर विभा राशि लगती मनोहर
सहर से सलौना पहर भी नहीं है
सदा चूमती है अधर से किनारा
समुंदर सरीखी लहर भी नहीं है
अली घूरता है गुलाबी कली को
सुधरने लगे वो भ्रमर भी नहीं है
नदी नीर कलकल करे रोज हलचल
मधुर तान वाली बँसुर भी नहीं है
शिवा शक्ति अनुरक्त हूँ मीत अब तक
जहर बन सके वो नजर भी नहीं है
-डॉ उमेश कुमार राठी