एक फूल खिला था जंगल में,
अनदेखा सा, अनचीन्हा सा
उसे जगाया था सूरज ने,
दिन भर उसके संग बतियाया
रात चाँद उसके आँगन में,
तारों के संग आ, इठलाया
और सबेरे बादल का एक टुकड़ा
नेह गया उस पर बरसा
एक फूल खिला था जंगल में,
अनदेखा सा, अनचीन्हा सा
चिड़िया उसके संग डोली,
भँवरे उसके संग झूमे,
बहती हुई हवा ने भी,
हौले से उसके दल चूमे
और एक दिन जब बिखरा,
तब भी लगता था जीता सा
एक फूल खिला था जंगल में,
अनदेखा सा, अनचीन्हा सा
-मुकेश चौरसिया