दोहे- अशोक मिश्र

अब मजहब की ढ़ेर पर, बारुदी दीवार।
मूढ़ पलीता ले खड़े, लोकतंत्र लाचार।।

सैतालिस में पड़ गई, बटवारे की रेख।
तीनो बंदर खुश हुए, चौड़ी खाई देख।।

मजबूरी में थाम कर, लोकतंत्र का हाथ।
संभव है जग में कहाँ, केर-बेर का साथ।।

जिनके खूँ में नित रहा, हिंसा ही हथियार।
सत्य-अहिंसा अब कहाँ, पाये उनसे पार।।

विह्वल सरयू जोहती, राम तुम्हारा बाट।
आओ बाहर टेंट के, सारे बंधन काट।।

दुर्योधन की है सभा,अब तो सारा देश।
तितली, मैना, बुलबलों, मत आना इस देश।।

हुई मशीनी सभ्यता, अब कचरे की ढ़ेर।
अब वसुधा कब तके सहे, मूढ़ों का अंधेर।।

हाथ जोड़ कर भेड़िया, करने लगा सलाम।
भेड़ों को अचरज हुआ, खास हुआ क्यो आम।।

-अशोक मिश्र
जौनपुर, उत्तर प्रदेश