दो बूंद इश्क़: नंदिता तनुजा

नंदिता तनुजा

ज़रा सोचो ना
कितना कुछ बोलते..
हर बात पर मुझे
खूब सुनाते और डांटते…

फ़िर भी मैं डटी रही
तेरे आने और जाने से
अपनी ही ज़िद्द पे अड़ी
दूर से रहे अजनबी बन
भीड़ में नज़र आते रहे..
फ़रेबी नहीं हो तुम…
यकीं आज भी है….

बहुत भाव खाते रहे
सुनाकर बाते, प्यार से
मुझे बुलाते रहे…
कभी हाँ-कभी ना
यही रील की फ़िल्म
और मैं हूँ ना.. जताते रहे…
दिल सच्चा, सोने की तरह
कभी जलाते, कभी तपाते रहे..

बिखरी हवा ये संदल
तुम्हें कहा है मैंने संगदिल
फ़िर भी तेरे नाम के
तराने दिल ने खूब गुनगुनाये
एक पागल लड़की…
दो बूंद इश्क़ में लिपटी
तेरे साये में सरमाए….
और तेरे नाम से मुस्कुराए….

दर्द की हर बोली
बंदूक की गोली सी
निकली जब आह
दिल ज़ार-ज़ार हुआ
इश्क़ बेबस कभी
लाचार हुआ..
होली के रंग फ़ीके लगे
दीवाली में मन का आंगन
कभी सूना लगा ..
गुजारे वो लम्हें जो तुम बिन
शिव शक्ति हुए अधूरे हर दिन….
कि विरह की आँच पर
मद्धिम वफ़ा का लौ जलता दिखे…

समय की परिक्रमा चली
घिरी जब हवा,
झुका आसमां,
बरसी जब घटा..
आँखों से अश्क..
यादों का धुँआ…
बिखरे-बिखरे ज़ज्बात
निकली सच की धूप
सब रहे मौन..
और धड़कनें चीखती रही…
लेकिन बातों का एहसास बिखरा…

इंतज़ार के पहलू सिमटे
तुम्हारे दिल से मेरा नाम जकड़ा
उम्मीदों से हारे
लेकिन तुमसें कभी नहीं
विश्वास में हो तुम हमारे
समय की रेत
थोड़ा आगे उड़ निकला
कि मोहब्बत है या होती नहीं
तुम डरते हो ना…
मोहब्बत….
कहने से… आज भी यही

कि तेरे बातों के हम
गुनाहगार है निकले
और फ़िर भी तुम
मेरे इश्क़ में कहाँ पर
आ निकले…