स्त्री विमर्श: आशा पाण्डेय ओझा

आशा पाण्डेय ओझा
राजस्थान

भोर की नर्म हथेलियों पर
करवा चौथ की मेहंदी
देखी न तुमने
प्रेम पगी भोर
दमकती भोर
जरूर देख पाईं होंगी
मुहब्बत से भरी वे आँखे
जिनके भीतर बचे हैं शेष आस्था, विश्वास, संस्कार, परवाह व प्यार के बीज
वरन
संस्कारों को बोझ
और
प्रार्थनाओं, त्योहारों को ढकोसला समझने वाले
कुछ टेढ़े वामपंथी चेहरे
तो स्त्री विमर्श का
झंडा उठाकर
तेज़ कर रहे थे धार
अपने नाखूनों की
ताकि नोच सके
अपने पूर्वजों के चेहरे
जिन्होंने बो दिये थे  संस्कारों के वे बीज
जिसकी गुड़ाई,निराई, कटाई कर रही है आज तक अकेली स्त्री
और जो फसलें लहराई हैं न बीज,तीज करवा चौथ, छठ,अष्टमी
आदि-आदि की
इन वामपंथी एकल खोरौं के मुताबिक
स्त्री को विवश किया गया है
संस्कार की फसल का भारा माथै पर ढोने को
बच कर रहना मुहब्बत से भरी स्त्रियों, पुरुषों
इन वामपंथी टेढ़े चेहरों से
जिनकी ज़बाने
अकड़ कर लकवा ग्रस्त हो जाती हैं
नन्ही बालिकाओं से लेकर बुड्ढी महिलाओं के साथ होते दुराचार पर,
दिन भर काम काज में डूबी महिला जब नहीं कर पाती भोजन
उस भूख को नहीं देख पाती वामपंथी रातोंदी युक्त दृष्टि
जब ऑफिसों में उलझी औरत को नहीं मिलता समय भोजन करने का तब,
और लौट आता है शाम, भरा का भरा टिफ़िन पुनः हाथ
तब इन्हें भूख भूख नहीं दिखती
दिखती नहीं वो भूख भी जो दिन भर
कारीगर को तगारी पकड़ाती औरत नहीं कर पाती भोजन
जब ठेकेदार देता है टारगेट चिनाई का
पर अचानक बुलंद हो जाते हैं इनके स्वर हिन्दू
तीज त्यौहारों पर
जब स्त्रियां कर रही होती हैं
अपने प्रियजनों की परवाह में व्रत त्योहार
और तो और उस समय
वामपंथियों को दिन भर की भूखी प्यासी उनकी अर्धांगिनी,या पुत्रवधू या बिटिया,
परोस रही होती है डायनिंग पर गर्म-गर्म भोजन
जब वे लिख रहे होते हैं संस्कार की बत्ती बुझाने को स्त्री विमर्श की कविता-कहानी