रोशनी का तमाशा: प्रार्थना राय

रोशनी का तमाशा कितना अजीब
सीख लिया है अंधेरा उगलना

समझ ना सकी दांव पे दांव का खेल
धोखे के कारोबार से नहीं कभी जुड़ी

उसूलों के पक्के इरादों ने
लहूलुहान किया जिगर को,
अपनों पे ना रहा एतबार

फ़ितरत में दगा ना रही,
खुद का फैसला ज़ख्म दे गया,
ना आसमां रहा ना ही ज़मीं

हैरान हूं ज़माना देखकर,
कौन सुनता किसी की यहां,
सब अपनी बात समझाने में लगे

उलझे सवालों को सुलझा रही,
खुद के वजुद की खोज,
खुद पे हँसना ना खुद पे  रोना

शिकवा क्या करें किसी से,
रू-ब-रू हूं ज़िन्दगी से
खुशी की छोड़ो यारों,
ग़म भी देता है रिश्वत लेकर

प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश