साहब,
आप जितनी दूरी हवाई-जहाज से तय करते हैं ना
आपकी लापरवाही से हमें उतनी ही दूरी पैदल तय करना है
इस तड़ताड़ाती धूप-घुमहरी में कंधे पर बच्चे,
सिर पर बोरा और परछाईं की तरह चलती पत्नी
साहब, चप्पल टूट गयी तो पानी की बोतलों और रस्सी से हमने चप्पलें बनाईं,
लेकिन उसने भी बहुत दूर तक साथ न दिया
साहब,
मैंने भी उसे खुशियाँ देने की कसम खाई थी
लेकिन आज उसके पैरों में छाले दे दिए
साहब, कल ही देखा एक माँ जेठ के महीने में अपने बच्चे को किसी पहिये वाले बक्से पर लेटा कर खींचते हुए
बस चलती ही जा रही थी, दूरी का उसे अंदाज़ा भी न था
लेकिन उसे चलना ही था, मंजिल पर पहुँचने की एक आस उसे चलाती जा रही थी
हमारी ही बिरादरी के एक परिवार
जिसके पास कभी बैलों की एक जोड़ी हुआ करती थी
लेकिन भुखमरी ने बैलों की जोड़ी को तोड़ दिया
और उस परिवार को एक बैल बेच अपने खर्चे का इंतज़ाम करना पड़ा
खर्च ले कर वह परिवार बैल गाड़ी में एक बैल बांध कर
बारी-बारी से परिवार के सभी सदस्य बैल का जोड़ीदार बन गाड़ी को खींच रहा
और मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे
साहब, हम अपनी मंज़िल को पहुचेंगे भी की नहीं
या उससे पहले ही एक-एक कर हम दम तोड़ देंगे
हमारी लाशों को कफ़न तक नसीब ना होगा
साहब,
सोचो न साहब, तुम्हें 10 मीटर पैदल चला दें इस धूप में तब क्या होगा
भर्ते के बैगन की तरह न भून गए न तो कहना
साहब,
हम ही वो थे जिनसे तुम्हारे बड़े-बड़े कारखाने चलते,
हम ही वो हैं जिनसे तुम्हारी गगनचुंबी इमारतें बनी
और आज तुमने ही हमें यूँ झटक दिया,
कुछ तो इंसानियत दिखाई होती तुमने भी
सरकार भी आपके टीवी और आपके महँगे मोबाईल में खबरें दे रही,
लेकिन साहब ये बताओ कि हम तो सड़कों पर हैं, खाने के पैसे नहीं,
मोबाईल है भी तो सस्ता वाला जो सिर्फ बात करने के काम आता है,
कुछ जिनके पास टच मोबाईल है भी तो डाटा का पैसा नहीं
तो साहब,
ये बताओ न हम कैसे जानें कि सरकार हमारे लिए कितना और क्या कर रही है
बड़ी मुश्किलें हैं साहब कभी अफ़वाहें उड़ाई जाती हैं तो कभी सच भी अफ़वाहों की तरह दिखाई जाती हैं
सरकार आपकी बड़ी दया हुई जो हम लोगों के लिए ट्रेनें और बस चलायी लेकिन साहब उसमें भी कुछ के साथ अन्याय हुआ
साहब, एक वक़्त था जब अपने पेट के लिए हम आपकी तीमारदारी करने चले आये थे और आज वो वक़्त आया है कि
आपने अपनी तीमारदारी बन्द करवा दी, और अब कोई रास्ता नहीं सिवाय अपने गाँव जाने के
जब आये थे तब पैसों की तंगी थी लेकिन साधनों की नहीं, तो किसी भइया, चाचा या बनिया से किराया-भाड़ा ले चले आये थे और आपकी तीमारदारी कर-कर के उनका उधार उतार दिया था
साहब आज तो वो भी नहीं कर सकते,
सरकार ने मदद भेजी तो लेकिन देरी इतनी हुई कि कई परिवारों के दिए बुझ गए
साहब ऐसा क्यों होता है कि हर बार हमारी ही बिरादरी छूट जाती है
देश की प्रबंधन व्यवस्था से,
और हमारे भाग में आती है सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी संवेदनाएँ,
कभी हमारी वेदना को स्ववेदना की तरह भी समझो न साहब
-सीमा कृष्णा