फिज़ा में कैसी मातमी
उदासियां छाने लगी
परिंदे भी सिसकियां भर के
घोसलों में रहने लगे
ऋतुओं के बदलते
पैतरों को देखकर
वायु की चाल बदली
दिशाएं भी कंपकपाने लगी
झूठ की सीढ़ियों की बदौलत
पहुंचे वो मंजिल तक
सच भी झूठ के आईने में अपना
अक्स देखने से घबराने लगा
झूठ की तपन में
इंसानियत झुलस गयी
तस्वीर बन गयी नैतिकता
घुटन के फ्रेम में जड़ गयी
खादी की सदाक़त करते थे
वो खादी बेचकर खाने लगे
विकास की गंगा में
महंगाई की धारा बहाने लगे
झुकते हैं जिनके आगे
ज़मीं-आसमां
प्रहरियों की शहादत पर
सियासी रोटियां पक रही
सब यहां कुर्सी बचाने में लगे
महंगाई, बेरोजगारी के वादों से
ऐंठन होने लगी
डिग्रियों पे नमक चटनी परोसे जाने लगे
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश