दिनकर दौड़ा लिए मुखौटा
रिमझिम मौसम का
लगातार बूँदों से लड़ते
पत्ते कदली के
आज धरा पर पुनः गिरे हैं
आँसू बदली के
मोर नाचता विह्वल होकर
डैने फैलाए
भूरा बादल दर्द छुपाता
मारा मरहम का
जल–तरंग पर नाच बुलबुले
मन के भावों से
नवनिर्मित होते मिटते हैं
चलते नावों से
नवयुवती बन नदियाँ निकलीं
घूँघट तट काढ़े
पुनर्मिलन तो संभावित है
सागर–प्रीतम का
देख धरा की हरियाली को
दादुर बौराए
और पतंगों की पंगत में
दीपक छिप जाए
भानु बुढ़ापे की लाठी ले
जाता पश्चिम को
पूरब में आह्वान हो रहा
तम के संगम का
रकमिश सुल्तानपुरी