हमारे हनुमान जी विवेचना भाग दस: तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा,
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥

अर्थ
आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने। आपकी सलाह को मानकर विभीषण लंकेश्वर हुए। यह बात सारा संसार जानता है।

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भावार्थ
सुग्रीव जी के भाई बालि ने उनको अपने राज्य से बाहर कर दिया था। बालि ने उनकी पत्नी तारा को भी उनसे छीन लिया था। इस प्रकार वालि ने सुग्रीव का सर्वस्व हरण कर लिया था। हनुमान जी ने सुग्रीव और श्री राम जी का मिलन कराया। बाद में श्री रामचंद्र जी द्वारा बालि का वध हुआ और सुप्रीम को उनका राज्य वापस मिला।

श्री हनुमान जी के द्वारा लंका में विभीषण को दी गई सलाह को उन्होंने मान लिया। रावण द्वारा लंका से भगाया जाने के बाद विभीषण श्री रामचंद्र जी के शरणागत हो गए।  श्री रामचंद्र जी ने तत्काल उनका राज्याभिषेक कर दिया और लंका का राजा बना दिया।

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संदेश
किसी के साथ अन्याय होता दिखे तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसकी सहायता करना ही मानवता है। हमको सदैव अच्छे एवं नीतिज्ञ व्यक्ति का साथ देना चाहिए। अगर कोई अन्यायी दुराचारी सत्ता पर बैठा हो तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसको हटाने का कार्य करना ही वीर व्यक्ति का लक्षण है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-
1-तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
2-तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां राजकीय मान सम्मान दिलाती है। हनुमत कृपा पर विश्वास आपको चतुर्दिक सफलता दिलाएगा।

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विवेचना
पहली चौपाई में महात्मा तुलसीदास बताते हैं कि हनुमान जी ने सुग्रीव जी को श्री रामचंद्र जी से मिलाकर सुग्रीव जी पर उपकार किया। श्री राम चन्द्र जी द्वारा उन्हें किष्किंधा का राजा बना दिया गया। अगर श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की मुलाकात नहीं होती और दोनों की आपस में मित्रता की संधि नहीं होती तो सुग्रीव कभी भी बालि को परास्त कर किष्किंधा की राजा नहीं हो पाते।

संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी इस बात का वर्णन है-
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो॥ को0-2॥

इसका अर्थ है कि बालि के डर से सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे। एक दिन सुग्रीव ने जब श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को आते देखा तो उन्हें बालि का भेजा हुआ योद्धा समझ कर भयभीत हो गए। तब श्री हनुमान जी ने ही ब्राह्मण का वेश बनाकर प्रभु श्रीराम का भेद जाना और सुग्रीव से उनकी मित्रता कराई। यह पूरा प्रसंग रामचरितमानस तथा अन्य सभी रामायणों में भी मिलता है। प्रसंग निम्नानुसार है-

सुग्रीव बाली से डरकर ऋष्यमूक पर्वत पर अपने मंत्रियों और मित्रों के साथ निवास कर रहे थे। बालि को इस बात का श्राप था कि अगर वह ऋष्यमूक पर्वत पर जाएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इस डर के कारण बालि इस पर्वत पर नहीं आता था। परंतु इस बात की पूरी संभावना थी कि वह अपने दूतों को सुग्रीव को मारने के लिए भेज सकता था। सुग्रीव ने एक दिन दो वनवासी योद्धा युवकों को तीर धनुष के साथ देखा ऋष्यमूक पर्वत पर आते हुए देखा।

आगें चले बहुरि रघुराया।
रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा।
आवत देखि अतुल बल सींवा॥ 1॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

सुग्रीव ने ये समझ लिया कि ये दोनों योद्धा बालि के द्वारा भेजे गए दूत हैं। सुग्रीव जी यह देखकर अत्यंत भयभीत हो गए। उनके साथ रह रहे लोगों में हनुमान जी सबसे बुद्धिमान एवं बलशाली थे। अत: उन्होंने श्री हनुमान जी से कहा तुम ब्राह्मण भेष में जाकर यह पता करो यह लोग कौन है।

अति सभीत कह सुनु हनुमाना।
पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई।
कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

सुग्रीव इतना डरा हुआ था कि उसने कहा कि अगर यह लोग बाली के द्वारा भेजे गए हैं, तो वह तुरंत ही वह इस स्थान को छोड़ देगा। यह सुनने के उपरांत हनुमान जी तत्काल  ब्राह्मण वेश में युवकों से मिलने के लिए चल दिए। हनुमान जी ने उन दोनो युवकों से उनके बारे में पूछा।

यहां यह बताना आवश्यक है कि इसके पहले हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के बाल्यकाल में उनको एक बार देख चुके थे, परंतु बाल अवस्था और युवा काल में शरीर में बड़ा अंतर आ जाता है, अत: उनको वे तत्काल पहचान नहीं सके।

पठए बालि होहिं मन मैला।
भागौं तुरत तजौं यह सैला॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ।
माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3।।
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4।।
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

हनुमान जी द्वारा पूछे जाने पर श्री रामचंद्र ने अपना परिचय दिया और परिचय प्राप्त करने के बाद हनुमान जी उनको तत्काल पहचान गए तथा उनके चरणों पर गिर गये।

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।
सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना।
देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥

हनुमान जी को इस बात की ग्लानि हुई कि वे भगवान को पहचान नहीं पाए और तत्काल उन्होंने भगवान से पूछा कि मैं तो एक साधारण वानर हूं आप भगवान होकर मुझे क्यों नहीं पहचान पाए।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही।
हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना।
ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

 इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपना पुराना परिचय याद दिला कर सुग्रीव के लिए एक रास्ता बनाया। सुग्रीव को एक सशक्त साथी की आवश्यकता थी, जो बालि को हराकर सुग्रीव को राजपद दिला सकने में समर्थ हो। हनुमान जी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की शक्ति के बारे में पता था। अत: उन्होंने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को सुग्रीव के पास चलने के लिए प्रेरित किया।

देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

अर्थ- श्रीरामचंद्र जी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दु:ख जाते रहे। (उन्होंने कहा- हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥

तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

अर्थ- हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥
इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को हनुमान जी लेकर सुग्रीव के पास पहुंचे और दोनों के बीच में मित्रता कराई।

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥
(रामचरितमानस/किष्किंधा कांड)

अर्थ- तब हनुमान जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात अग्नि की साक्षी मानकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥4॥

इसी प्रकार का विवरण वाल्मीकि रामायण में भी है-

काष्ठयोस्स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्।
दीप्यमानं ततो वह्निं ह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम् ।
तयोर्मध्येऽथ सुप्रीतो निदधे सुसमाहितः।
ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्।।
सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ।
ततस्सुप्रीतमनसौ तावुभौ हरिराघवौ।।
(वाल्मीकि रामायण/किष्किंधा कांड/5/15,16,17)

हनुमान जी ने सुग्रीव जी और श्रीरामचंद्र जी के बीच में वार्तालाप होने के बाद अग्नि देव को जलाया। उनका पुष्प आदि से पूजन किया। इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव के बीच में अग्नि को रखा गया।  दोनों ने अग्नि की परिक्रमा की। इस प्रकार सुग्रीव और श्री राम जी की मैत्री हो गई। दोनों एक दूसरे को मैत्री भाव से देखने लगे। इस मैत्री के उपरांत बाली के वध की योजना बनी। फिर सुग्रीव को राजपद प्राप्त हुआ। इस प्रकार अगर हनुमान जी पूरी योजना बनाकर क्रियान्वित नहीं करवाते तो सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य नहीं प्राप्त हो सकता था। हनुमान जी ने यह सब किसी स्वार्थवश नहीं किया वरन महाराज बालि द्वारा किए जा रहे अन्याय को समाप्त करने का उपाय किया।

इसी प्रकार की दूसरी घटना श्रीलंका की है। जहां पर दुराचारी अत्याचारी निरंकुश शासक रावण राज्य करता था। रावण का दूसरा भाई विभीषण धार्मिक, सज्जन और ईश्वर को मानने वाला था, परंतु शारीरिक शक्ति में वह रावण से कमजोर था। हनुमान जी ने उसको श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचने की सलाह दी। श्री विभीषण ने बाद में इस सलाह का उपयोग किया और वह श्री लंका का राजा भी बना। हनुमान जी द्वारा विभीषण को सलाह देने की पूरी कहानी पर अगर हम ध्यान दें, तो हम पाते हैं कि सीता जी की खोज में लंका भ्रमण के दौरान विभीषण का मकान हनुमान जी को एकाएक दिखा था। विभीषण के भवन के बाहर धनुष बाण के प्रतीक बने हुए थे। घर के बाहर लगी तुलसी के पौधे और धनुष बाण के इन्हीं प्रतीकों ने महावीर हनुमान जी को आकर्षित किया।

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥
(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा-5)

अर्थ- वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए। हनुमान जी इस भवन को देखकर हर्षित हो गए। उनके मन में यह उम्मीद जगी कि यहां से उनको सहायता मिल सकती है। इसके बाद की घटना और भी  आकर्षक है। हनुमान जी ने मन ही मन में कहा और तर्क करने लगे-

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

और हनुमान जी ने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसों के कुल की निवास भूमि है। यहाँ सत्पुरुषों के रहने का क्या काम? इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली।

कहानी अब स्पष्ट होती है-
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥

विभीषण जी ने जागते ही ‘राम! राम!’ का स्मरण किया, तो हनुमानजी ने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ। हनुमानजी ने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषों के हाथ कभी कार्य की हानि नहीं होती। उसके उपरांत हनुमान जी ब्राह्मण के भेष में विभीषण के सामने पहुंचे।  विभीषण जी ने उनको अच्छा आदमी समझ कर अपने पास बुलाया और चर्चा की। तब  हनुमान जी ने पूरा वृतांत सुनाया।

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।
(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा-6)

विभिषण के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने रामचन्द्रजी की सब कथा विभीषण से कही और अपना नाम बताया। परस्पर एक दूसरे की बातें सुनते ही दोनों के शरीर रोमांचित हो गए। श्री रामचन्द्रजी का स्मरण आ जाने से दोनों आनंदमग्न हो गए। हनुमान जी की विभीषण से दूसरी मुलाकात लंकापति रावण के दरबार में हुई, परंतु वहां पर हनुमान जी और विभीषण के बीच में कोई वार्तालाप नहीं हुआ। लंकापति रावण हनुमान जी को मृत्युदंड देना चाहता था, जिसको विभीषण ने पूंछ में आग लगाने में परिवर्तित करवा दिया था। इस प्रकार यहां पर विभीषण जी ने हनुमान जी की मदद की।

विभीषण जी से हनुमान जी की तीसरी मुलाकात श्री रामचंद्र जी के सैन्य शिविर में हुई। जहां पर शरण लेने के लिए विभीषण जी पहुंचे थे। रामचंद्र जी के द्वारा सुग्रीव जी से यह पूछने पर श्री सुग्रीव ने कहा की यह दुष्ट हमारी जानकारी लेने के लिए आया है, अत: इसको बांध के बंदी गृह में रख देना चाहिए।  महावीर हनुमान जी भी वहीं बैठे थे। उन्होंने कोई राय नहीं दी। श्री रामचंद्र समझ गए कि हनुमान जी की राय सुग्रीव जी की राय के विपरीत है। तब श्री रामचंद्र जी ने कहा कि नहीं शरणागत को शरण देना चाहिए। यह सुनकर हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न हो गए।

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥
(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

अर्थात- श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ कि भगवान सच्चे शरणागत वत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)।

विभीषण जी से श्री लंका में पहली मुलाकात के समय हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में कुछ बातें विभीषण जी को बताई थीं। उन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आज विभीषण जी श्री राम जी की शरण में आए थे। विभीषण जी ने इस बात को यो कहा-

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥
(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा संख्या-45)

विभीषण जी ने कहा हे प्रभु! हे भय और संकट मिटाने वाले! मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दु:ख) हरण करने वाले! हे शरणागतों को सुख देने वाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। विभीषण ने इस समय श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में बहुत सारी बातें कहीं। अंत में श्री रामचंद्र जी ने समुद्र के जल से विभीषण जी का लंका के राजा के रूप में राजतिलक कर दिया।

जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

श्री राम चंद्र जी ने कहा कि हे सखा! यद्यपि आपको किसी बात की इच्छा नहीं है तथापि जगत में मेरा दर्शन अमोघ है। अर्थात निष्फल नही है। ऐसे कहकर प्रभु ने विभीषण के राजतिलक कर दिया। उस समय आकाश से अपार पुष्पों की वर्षा हुई।

इस प्रकार हम पाते हैं कि सुग्रीव जी और विभीषण जी दोनों के राज्य पाने में श्री हनुमान जी सहायक हुए हैं। हनुमान जी ने सदैव ही अच्छे और सज्जन व्यक्ति का साथ दिया है। अगर किसी अन्यायी या दुराचारी ने अन्याय पूर्वक सत्ता पर कब्जा कर लिया हो तो हनुमान जी उसको सत्ता से हटा देने का कार्य करते हैं।

जय हनुमान