यूं तो उस ईश्वर ने हम सभी को एक जैसा बनाकर भेजा है, अर्थात सभी को दो हाथ दो पैर दिए, मुख पर इस दुनिया के दर्शन करने हेतु दो आंखें दीं, अपनत्व एवं प्रेम की स्वच्छ निर्मल सुगंध को महसूस करने के लिए नासिका दी, प्रकृति में हर पल गूंजता मधुर संगीत सुनने हेतु दो कान दिए, एक स्वच्छ निर्मल पावन ह्रदय और एक मन दिया।

जब इन्सान जन्म लेता है एक स्वच्छ निर्मल पावन आत्मा को इस सुंदर शरीर रूपी वस्त्र से ढककर ईश्वर इस संसार में भेजता है और ऊपर बैठा सब देखता रहता है कि कौन इस शरीर रूपी आवरण को ही स्वच्छ रख पाने ‌में सफल रह पाता है। अफसोस! ईर्ष्या, राग, द्वेष, छल, झूठे आडंबरों में फंसकर इन्सान अपने मन और ह्रदय की ही सुनता है, गलत सोचता, गलत फैसला करता स्वयं को धोखा देता है, मगर कब तक और क्यूं?

दोस्तों कितनी अजीब बात है जो इन्सान स्वयं को पूर्ण एवं दुनिया की नजरों में अच्छा बनने का दिखावा करता, वास्तविकता कुछ और होती है। इसी बात को प्रमाणित करती मेरी यह छोटी सी लघुकथा आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूं।

एक महिला प्रतिदिन नियम से मन्दिर जाया करती थी। आंधी हो बरसात हो, बीमार हो या कैसी भी परिस्थिति उसके सामने क्यूं न आ जाए वह अपना नियम नहीं बदलती थी।

एक दिन महिला बड़ी क्रोधित होकर उस मन्दिर के पुजारी से बोली- ‘देखो पुजारी जी अब मैं कल से मन्दिर नहीं आया करूंगी।’

ये बात सुनकर पुजारी ने महिला से पूछा- ‘क्या हुआ? माता आप तो इतने समय से नियमित मन्दिर आ रही हैं, फिर आज अचानक क्या हुआ जो मन्दिर आने के लिए मना कर रही हैं।’

महिला बोली- ‘मैंने अक्सर देखा है यहां आकर लोग अपने-अपने मतलब की बातों में ही लगे रहते हैं, कोई व्यापार की बात करता, कोई मुनाफे नुकसान की, कोई घरेलू , सभी इधर उधर की बातें करते हैं। मोबाइल फोन पर बात करते रहते हैं। एक दूसरे की चुगलियां करते हैं। सब देख मुझे आश्चर्य होता है और बहुत क्रोध आता है।

जब लोगों की ईश्वर में आस्था ही और उससे कोई लेना देना नहीं है, तो‌ क्यूं आते हैं मंदिरों में?

यह बात सुनकर पुजारी कुछ देर तो चुप रहा और फिर उस महिला से बोला कि ‘माता आप सही बोल रही। हैं, किन्तु अपने अन्तिम निर्णय पर पहुंचने से पहले क्या आप मेरे कहने पर एक काम करेंगी?’

महिला बोली- ‘जी पुजारी जी आप बताइए मुझे क्या करना होगा?’

पुजारी ने कहा- ‘एक गिलास में पानी भरिए और इस मन्दिर के तीन चक्कर लगाकर मेरे पास आएं। किन्तु परिक्रमा करते समय एक बात का ध्यान रखना कि गिलास से पानी की एक भी बूंद गिरनी नहीं चाहिए।’

महिला बोली- ‘ठीक ऐसा ही होगा।”

कुछ समय पश्चात वह महिला अपना कार्य सम्पन्न कर जब पुजारी के पास आई तो पुजारी ने उस महिला से तीन सवाल पूछे-

1. क्या आपने किसी को फोन पर बातें करते हुए देखा?
महिला ने उत्तर दिया – ” नहीं।”

2. क्या आपने किसी को व्यापार संम्बधी बातें करते सुना?
महिला ने उत्तर दिया- ‘नहीं’

3. क्या किसी को किसी की चुगली करते सुना या किसी को पाखंड करते देखा?
महिला का उत्तर इस बार भी- नहीं।

महिला बोली- ‘पुजारी जी कितने आश्चर्य की बात है कि मैंने ऐसा कुछ भी न देखा न ही सुना!’

महिला की बात सुनकर पुजारी जी बोले- ‘जानती हो माता ऐसा क्यों हुआ?’

महिला बोली- ‘हो‌ सकता ‌है महाराज आपके बोलने के पश्चात कोई चमत्कार हुआ हो जो मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दिया।’ धन्य हैं आप महाराज!

महिला की बात सुनकर पुजारी बोले- ‘माता यहीं तो धोखा खाता है इन्सान। मैंने न तो कोई चमत्कार किया, न ही मेरे पास कोई दिव्य शक्ति ही है। मैं तो कैवल आपको वास्तविकता से अवगत करवाना चाहता हूं और वास्तविकता यह है कि परिक्रमा करते समय आपका पूरा ध्यान केवल और केवल गिलास पर ही केन्द्रित था। आपको‌ लक्ष्य के अनुरूप गिलास के पानी को गिरने से बचाना था। फिर इधर उधर की बातों की और ध्यान कैसे जाता।’

यही सोचने वाली बात है जब हमारी ईश्वर पर अटूट आस्था है। हम स्वच्छ निर्मल मन कर्म और वचन से इस संसार की सभी वस्तुओं में सभी प्राणियों में यदि उसका ही वास मानते हैं तो‌ हमें केवल अपना कर्म सरल सहज एवं विशुद्ध होकर बिना किसी की निन्दा किए करना चाहिए।

जैसा कि ऊपर कहा गया कि उस ईश्वर ने सभी को एक जैसे प्राण, दिन-रात, ह्रदय, स्वच्छ मन
और इन सभी को एक सुन्दर शरीर रूपी आवरण से सजाकर भेजा है। अब तय हमें करना है कि हम बाह्य स्वच्छता एवं सुंदरता को बनाए रखने के लिए तत्पर हैं, जिसे एक निश्चित समय पश्चात पंच तत्वों में विलीन हो जाना है या फिर अपनी उस अंतरात्मा अपने ह्रदय एवं मन को अच्छे विचारों द्वारा सजाएंगे।

किसने क्या किया?
किसने क्या कहा?
कौन‌ क्या कर रहा?
वह ऐसा है‌, वैसा है!

इन सभी विचारों को अपने मन में आने या सोचने से पहले स्वयं के बारे में सोचें, यदि हम एक अंगुली किसी की ओर उठाएं तो याद रखें बाकी चार स्वत: ही हमारी ओर झुकी दिखाई देगी। सीधी साफ बात है हम जो कर्म करने आए वह करें, न तो किसी को देख अपने नेक इरादों की बलि चढ़ाएं, न ही इस दुनिया के हर बदलते रंग में इस प्रकार स्वयं बदले कि अपने स्वयं के वजूद से समझौता करना पड़े।

बाकी अच्छा, बुरा, क्या होना? हार-जीत, अपमान-सम्मान, सभी परिस्थितियां तो उस ऊपर वाले ने हम सभी के प्रगति पत्र में संलग्न कर भेजा है और समय समय पर हमारे कर्मानुसार अंकित भी होता रहता है। फिर क्यूं स्वयं को अपने पथ से भटकाएं चाहे कुछ हो जाए।

यही है सच्ची आराधना, जो‌ किसी दिखावे या परिमाण की आकांक्षी नहीं।

सीमा शर्मा ‘तमन्ना’
नोएडा, उत्तर प्रदेश