जकासा एवं समरस साहित्य संस्थान की काव्य गोष्ठी में बिखरे कविताओं के रंग

जयपुर के 296वें स्थापना दिवस एव दीपोत्सव पर समरस साहित्य सृजन संस्थान, जयपुर इकाई एवं जयपुर काव्य साधक की 10वीं मासिक काव्य-गोष्ठी मुम्बई से पधारी कवियत्री डॉक्टर काव्या मिश्रा, मुख्य अतिथि और उन्ही के मुखारविंद से सरस्वती वन्दना- “मात शारदे वीणा-पाणि हे कल्याणी! आज झमाझम करदे माँ। यहाँ वहाँ हरियाली हो, खुशहाली हो। हर दिन होली, हर दिन ईद-दिवाली हो।” जैसे मधुरिम वन्दना से शुरु हुई। विशिष्ट अतिथि श्याम सिंह राजपुरोहित तथा बांदीकुई से पधारे मुकेश गुप्त ‘राज’ थे। अध्यक्षता समरस संस्थान (जयपुर इकाई) के अध्यक्ष गीतकार लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला द्वारा की गई।

गोष्ठी में अमित तिवारी ‘आजाद’ ने श्री कृष्ण और भीष्म के संवाद- बुजुर्ग जब अपनी जिम्मेदारी भूल जाते है, तब तब महाभारत होता है। “भीष्म तुम्हारे पौरुष पर एक जटायु भारी है, तुम तो पड़े शरशैया पर, वह राम-गोद अधिकारी है। तुम एक प्रतिज्ञा खातिर सब कुछ भुला बैठे, आँखों के सम्मुख द्रौपदी‌की अस्मत लुटवा बैठे।” जैसे सोचने पर मजबूर करती रचना सुनाई।

वैद्य भगवान सहाय पारीक, डॉ एनएल शर्मा, बाल कवि मेहुल पारीक, बनवारी लाल ने सुंदर रचनाए सुनाई। जकासा संस्थापक किशोर पारीक ‘किशोर’ ने- लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी, अपनी ताकत को जानो। एक वोट की असली कीमत, क्या होती है पहचानो और संस्कृति और संस्कारों का महत्व दिखाया राम ने। मन से यदि निकले रावण तो, सबके मन में बसते राम है। सुनाकर माहौल राममय कर दिया। राव शिवराजपाल सिंह ने- “सूरदासों के शहर में, ऐनकेँ बाँटने का नहीं फायदा। व्यंग्य रचना और शब्दों के‌ कमाल‌ का प्रयोग करते हुए ‌अनेक क्षणिकाएं सुनाई।

वरिष्ठ कवि वरुण चतुर्वेदी ने- नदी किनारे खड़े पेड़ पर पानी का उपवास लिखा, बूढ़े बरगद के बल्कल पर इतिहास लिखा। इसके अतिरिक्त बृज भाषा में “अँसुवन में मोरी गङ्गा सी मैया” जैसी भावप्रवण रचना बेटी के उपर सुनाकर दाद पायी।

श्रीमती नीता भारद्वाज ने- आओ मेरे राम आओ, नेह की कुटिया छबीली । दीपो के त्योहार फिर मिली सौगात है, पथ के अँधियार ने फिर खाई एक बार मात है और “अहिल्या सा धीरज चाहिए, यदि चाहो चरणों से उद्धार तो” जैसी सरस भावोँ की रचना सुनाई। गोपकुमार मिश्र ने- “गोपी चंदन, जोड़ी रुकमिनी सूँ, बरजोरी गोपिन संग, प्रीति की पींग राधा रानी संग बढाई है। अधर चूमि छेडे तान मुरलिया श्याम की, राधा बोली ये तो सौतन बनि बनि आई है।” प्रेम रस में भिगो दिया। डॉ मुकेश गुप्त ‘राज’ ने सुंदर गीत और घनाक्षरी छंद सुनाये। सज्जन समाज मे विशेष यश लाभ मिले, बेटे बेटियों को संस्कार दीजिए, भारतीयता के संस्कार को बचाइए।

श्याम सिंह राजपुरोहित ने “आँसुओं से कही उनकी तकदीर धुल न जाये। हाजिर हूँ मै एक कोरे कागज की तरह, कुछ लिख सको तो ठीक वरना जला देना। तुम बस अपनी कश्ती को बचा लेना। डॉ काव्या मिश्रा- मैं फकत शब्द हूँ, मुझ को छूकर महकती सुगंध बना दे। अहसास का मधुमास लिए बैठी हूँ, मैं कली तू अलि, मकरंद बना दे।

लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला- नगर गुलाबी की है देखो, जग भर में पहचान, गोविंद ही आराध्य इसके, बनी रहे यह शान और मन के दूर विकार सभी हो, तभी तमस का नाश। दीनों के घर करें उजाला, फैले ख़ूब प्रकाश। आतिशबाज़ी छोड़ दीन को, बाँटें कुछ उपहार। त्रयोदशी से पाँच दिवस का, दीपोत्सव त्योहार।

अंत में वैद्य भगवान सहाय पारिक ने इस नव रस काव्य की सुगंध बिखेरने के लिए सभी का आभार प्रकट किया। गोष्ठी का प्रभावशाली संचालन वरिष्ठ साहित्यकार राव शिवराज पाल सिंह ने किया।