समर्पित, निडर और निर्भीक- वीर दुर्गादास राठौर: राव शिवराज पाल सिंह

राव शिवराज पाल सिंह
इनायती, जयपुर
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एक बार जोधपुर राज्य की सेना के कुछ ऊँट चरते हुये आसकरण के खेत में घुस गये, उस समय खेत में फसल की रखवाली आसकरण का बेटा दुर्गादास कर रहा था। बालक के विरोध करने पर राजा के चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो किशोर दुर्गादास ने तलवार निकालकर एक ही पल में ऊँट की गर्दन उड़ा दी। चरवाहों ने यह समाचार जोधपुर भेजा। जब एक बालक की इस उद्दंडता की खबर जोधपुर के तत्कालीन महाराजा जसवंत सिंह को लगी कि वह बालक जोधपुर की सेना के ही एक सैनिक आसकरण का बेटा है तो उन्होंने बालक को अपने सामने उपस्थित करने का आदेश दिया।

आदेश पर आसकरण बालक दुर्गादास को लेकर राज दरबार में उपस्थित हुआ जहां महाराजा ने उस से सीधा सवाल किया कि तुमने राजा के ऊंट की गर्दन क्यों उड़ाई? बालक दुर्गादास ने उसी निर्भीकता से उत्तर दिया कि महाराज आपके ऊंट मेरे खेत की फसल को नुकसान पहुंचा रहे थे, चरवाहों को कहने पर भी उन्होंने ऊंट नहीं निकाले तो जिस फसल की रखवाली के लिए पिता ने मुझे भेजा था उसमें नुकसान कैसे करने देता। जब चरवाहे नही मान रहे थे तो मेरे पास ऊंट की गर्दन उड़ा कर फसल बचाने के अलावा और कोई तरीका ही नही था। भरे दरबार में उस वीर बालक की जिम्मेदारी के प्रति समर्पण, निडरता एवं निर्भीकता देखकर महाराजा बड़े प्रभावित हुए। महाराजा ने बालक दुर्गादास राठौर को अपने पास बुलाकर पीठ थपथपाई और इनाम के रूप में एक तलवार बख्शीश के रूप में दी और वही अपनी सेना में भर्ती कर लिया। कुछ ही दिनों में दुर्गादास अपनी बहादुरी, कर्मठता, स्वामिभक्ति और विवेक के बल महाराजा जसवंत सिंह जी के खास सेना नायकों में से एक हो गए।

मारवाड़ की स्वतन्त्रता के लिये वर्षों तक संघर्ष करने वाले महान कूटनीतिज्ञ, वीरवर दुर्गादास का जन्म जोधपुर राज के एक छोटे से गांव सलवां कलां में एक अति साधारण क्षत्रिय परिवार में आसकरण राठौर के घर 13 अगस्त, सन् 1638, तदनुसार श्रावण शुक्ला चतुर्दशी सम्वत् 1695 में हुआ था।

महाराजा जसवंत सिंह उस समय दिल्ली के मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रमुख मनसबदार थे। लेकिन औरंगजेब की नीयत जोधपुर राज्य के लिये ठीक नहीं थी और वह हमेशा मारवाड़ को हड़पने के लिये मौके की तलाश में था। इतिहास के अनुसार जसवंत सिंह जी के द्वारा सम्वत् 1731 में गुजरात में मुगल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबा देने के बाद अफगानिस्तान के पठानों के विद्रोह को दबाने भेजा गया। जसवंत सिंह मारवाड़ की सेना और अपने प्रमुख सेना नायकों सहित अफगानिस्तान गए और वहां विद्रोही पठानों का दमन करने में सफल रहे, लेकिन वहीं पर उनका प्राणांत हो गया। अपनी मृत्यु से पहले अपने विश्वस्त सरदारों के साथ ही दुर्गादास को औरंगजेब की बदनीयती के बारे में बताया और मारवाड़ राज्य को बचाए रखने की जिम्मेदारी दी।

जसवंत सिंह की मृत्यु के समय उनकी दोनों रानियों से एक-एक पुत्र का जन्म हुआ ही था। औरंगजेब ने जसवंत सिंह की सेना को वहां से वापस बुला लिया और साथ ही महाराजा की पत्नियों को दोनो बच्चे सहित दिल्ली यह कहकर बुला लिया कि दोनो बालक की देखभाल यहां राजसी तरीके से उसकी स्वयं की देखभाल में की जाएगी। लेकिन वहां एक पुत्र की बीमारी अवस्था में मृत्यु हो गई और जसवंत सिंह की दोनो रानियों और बालक अजीत सिंह को कड़े पहरे में दिल्ली में रखा गया। दुर्गादास ने औरंगजेब की बदनीयती देखकर अपने साथियों के साथ योजना पूर्वक औरंगजेब की सारी सुरक्षा घेरे को धता बताते हुए बालक अजीत सिंह और उनकी माता जादून जी को मारवाड़ में अज्ञात स्थान पर ना केवल पहुंचा दिया बल्कि जब तक अजीत सिंह युवा नही हो गए तब तक किसी को उनकी भनक तक नहीं लगने दी।

अजीत सिंह के युवा होने पर भी उनके संरक्षक और सलाहकार की तरह काम कर मारवाड़ राज्य पर उनको स्थापित कर दिया। औरंगजेब ने दुर्गादास को बहुत प्रलोभन दिए लेकिन महाराजा जसवंत सिंह को दिए वचन से बंधे हुए दुर्गादास ने सारे प्रस्ताव ठुकरा दिए। अपने जीवनकाल के उत्तरार्ध में दुर्गादास मेवाड़ चले गए जहां पर भी उन्होंने रामपुरा आदि के विद्रोहों को शांत करने में प्रमुख भूमिका निभाई। औरंगजेब अपने सारे प्रयासों के बावजूद भी मारवाड़ पर अपना आधिपत्य जमाने में दुर्गादास की दूरदर्शिता पूर्ण नीतियों और वीरता की वजह से असफल ही रहा। ऐसे वीर पुरुष ने अपनी अंतिम सांस उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे ली जहां आज भी उनकी समाधि है, उनके जन्म दिवस पर शत-शत नमन और श्रद्धांजलि।