इन दिनों खिला-खिला सा है अनन्त
बीती ऋतु मे
खूब दम घोंटा काले मेघों ने
अब शरद ने भय-मुक्त किया है उसे
अन्तसतल से आभास किया है
उसकी पीड़ा को
इतना घुटा था हृदय….
कि उलाहनों का मनुहार
खीझ गया……
प्रतीक्षाऐं कुंठित हो
पीत पड़ गई….
अनवरत उपेक्षाओं से
हृदय शुष्क मरुभूमि सा हो गया…
उगने लगे बेर….कीकर…
अब विछोह की ऋतु है…
पत-झर संग मन-झर होगा
वृक्ष तजेंगे पीत-पर्ण
और मन झरेगा
मिथक आस और परायी उपेक्षाओं का दंश….
पुनः प्रकृति संग हृदय भी धरे
नव रूप-रंग…
शरद के नभ-सा हृदय भी खिले
हाँ,पीड़ सहनी होगी
कि बिन-वेदना
नव-सृजन की उत्त्पत्ति
कहाँ सम्भव…
-निकी पुष्कर