मिले हो हर किसी से पर कभी खुद से मिले क्या?
कभी पूछा है खुद से हैं कोई शिकवे-गिले क्या?
कभी तनहाइयों में बैठ कर खुद को सुना है,
मुकद्दर नें भला तुमको ही आखिर क्यों चुना है,
जरा देखो कि अंतस में हैं कितने ही सितारे,
प्रकृति नें अनगिनत रंगों से ये तन मन बुना है,
जो जीवन को सुगंधित कर सकें वो गुल खिले क्या?
बिना दर्पण के खुद को देखना मुश्किल नहीं है,
बनावट के नज़रिये को ये सुख हासिल नहीं है,
मिलो जब खुद से तो कुछ देर तक खुद को समझना,
ये बस पहचान है लेकिन तेरी मंजिल नहीं है,
जरा समझो कि कहना चाहते हैं सिलसिले क्या?
ख़ता खु़द की नज़र अंदाज़ कर देते हैं ऐसे,
सुधरने की जरुरत ही नही है हमको जैसे,
हमेशा दूसरों को ही बदलना चाहतें हम,
अगर बदला ना खुद को मंजि़लें पायेंगे कैसे
हमेशा साथ में होंगे हमारे काफिले क्या?
-शीतल वाजपेयी