चाह के भी दूर नहीं जा पाई मैं तुमसे
न जाने कौन सा बंधन था
जो मेरे हृदय के तारों को बांधे हुये था तुमसे
न जाने कौन सा आकर्षण था
जो खींच लेता था मुझको
हर बार तुम्हारी तरफ
और तुम भी तो समेट लेते रहे मुझे
हर बार दुगने वेग और बेचैनी के साथ
फिर मैं घुलने लगी तुम में
और तुम रचने-बसने लगे मेरे अंदर
मैं उस पेड़ की तरह थी
जो छटपटा रहा था
अपनी जड़ों से कटकर
तुमने जोड़ा है मुझे,
तुमने सींचा है मुझे
मेरी जड़ों को समेट लिया है
तुमने अपने भीतर
अब मैं थोड़ा-थोड़ा ही सही पर जीने लगी हूँ
तुममें रहकर, तुमसे जुड़कर
शायद अब कभी दूर न जा पाऊं
क्योंकि कुछ तुम मुझमें बसे हो
कुछ मैं तुममें बसी हूँ
कभी न कम पडऩे वाली
एक-दूसरे की जरूरत बनकर
-रूचि शाही