ढल जाती हैं
हर साचें में क्या ये
कमजोर होती हैं।
या हर रूप
को पा लेने की
ओर होती हैं।।
चाहा अनचाहा
कुछ अपना नहीं होता।
मिलता है सबकुछ
बस कोई सपना नहीं होता।।
चुप रहती हैं ये
बात करती हैं आँखें इतनी।
समझ आ जाएँ तो
ये हैं समुद्र जितनी।।
खुश रहती हैं
ये हँसती भी हैं।
पर जाने क्यों अकेले में
सिसकती भी हैं।।
मिले जो तुम्हें कभी
समझने की कोशिश करना।
यूँ तो कहेंगी नहीं
बस पढ़ने की कोशिश करना।।
-शालिनी सिंह