मेरी कलम कुछ कहती है
थोड़ी शिकायत, थोड़ी बगावत
थोड़ी नाराज़ रहती है
होकर के गुमसुम कभी
मेरी कलम मुझसे कहती है
कागज़ पर चलते-चलते
भावनाएँ तुम्हारी कहते-कहते
थक जाती हूँ, रुक जाती हूँ
ख़त्म हो जाती हूँ छोड़कर निशां अपने
मै मुस्कुरा देती हूँ सुनकर उसकी बातों को
समझा देती हूँ उसे
मेरे जीवन में उसके महत्व को
हो तुम्हीं मेरी सुख-दुःख की संगिनी
हर घड़ी मेरे साथ होती हो
भावनाएँ मन की मेरी
कोरे कागज़ पर उकेर देती हो
लयबद्ध और भावपूर्ण
मन की कल्पनाओं को
सुन्दर शब्दों का रूप देती हो
तुम ही मेरी सच्ची सखी
मेरे मन की आवाज़ हो
इस तरह सुनकर वो शब्द मेरे
फिर से चल पड़ती है
एक नई ऊर्जा, नये आत्मविश्वास के साथ
और एक नई कविता की रचना करती है
-माया