हैं शहर के पेड़ ये
भीड़ में जो तन्हा खड़े हैं।
पल भविष्य के अतीत हुये
सूखकर पात भी पीत हुये
बस सामाजिक शर्म के गोंद से हैं चिपके
वरना तो ऐंठे अकड़े है।
हैं शाखाएँ भी जुड़ी हुई
खुद में ही लेकिन मुड़ी हुई
वो समझती हैं कि अस्तित्व उनका स्वतंत्र
और अलग उनकी जड़े है।
फूल पर अधिकार नही है
फलों को स्वीकार नही है
जिस तन पर लहरा रहे हैं ये, नही जानते
खाये कितने फावड़े है।
लगता जैसे सदा बसन्त है
मगर वेदना ज्यो अनन्त है
फिर भी रहना है मुस्कुराते इस दिल को
भले कितने हुए चीथड़े हैं।
दिखते तो ये हरे भरे हैं
इन पर नकली रंग चढ़े है
वस्त्र लपेटे हैं खुशियों के तन पर मगर
भरे अवसादों से पड़े हैं।
-शैलेन्द्र
(सौजन्य साहित्य किरण मंच)