रोशनी ओझल हुई
सूरज की आधी धरा,
थकी हारी कुछ न कुछ
लाभालाभ समेटे कमायी
अपनी मेहनताने
आगमन गोधूलि,
समेटता महकमा ख़ुद की
रचायी दिनभर की विहँसती महफ़िल,
शाम की अँगराईयों में बिदकती,
सकुचाती शर्मीली सी रात।
एकान्त अविचल निष्पन्द,
सोचने को विवश
ख़ुद की हकीकत कुछ भी
किया सही या गलत,
मूल्यांकन करने को आकुल मन,
महकाने रजनीगंधा बन ख़ुद को,
अपने आगम्य को बनाने एक बेहतर पल,
ख़ुशनुमा जिंदगी या यूँ कहें,
एक शख्शीयत सबसे अलग,
नवगुंजित गुलज़ार अमन के
अपने आसपास, चारों तरफ़,
कुछ ऐसा जिसके लिए
अवतरण भुवि मनुज बन,
हो आईना अतीत का,
वर्तमान का संवाहक सारथी,
निर्माणक सुनहरा नायाब
अकल्पनीय भविष्य का।
नायाब तोहफ़ा हूँ कुदरत का,
आपबीति सोचने,भूलाने गमों को,
अबतलक हमदम चाँद सा,
सुकून देती शीतल चाँदनी सी निशा,
निस्तब्ध निर्लिप्त निर्विकार
अनाहत आनंदकर निद्रालू,
आगोस में समाया मनुज,
आगत नूतन सबेरे को समेटे मानसपटल,
ख़ोए ख्वाबों की अलबेली,
खू़बसूरत दुनिया में चहुँदिक्,
शांति का संवाहिका मैं निशा।
तैनात हैं बन सुरक्षा कवच
अनगिनत असंख्य अगणित
तारक ग्रह गगन के नक्षत्र
ख़ुद के नियत युगयुगान्त स्थल,
टिमटिमाटे जूगनू रनिवास का
परिचारक संरक्षक बन अनवरत
न हो तिरोहित गहन सुख निद्रा,
इन्दु के स्नेहिल बाहों में समायी
या यूँ कहूँ अमावस की गहनतमा
डरावनी फुफकारती भुजंगिनी सी
लपलपाती निनादित निशा ।
निष्कपट निर्विवाद न केवल मनुज
पर, सकल चराचर कुदरती
सत् असत्, चाहे क्यों न हो कोई यहाँ,
प्रशान्ति की सुखनुमा शय्यासीन
करती नवाशा की संचारिणी
जागती बन प्रहरी काली मैं निशा
– डॉ राम कुमार झा
(साहित्य किरण मंच के सौजन्य से)