सुनो ना- संगीता पाण्डेय

सुनो ना
कहा तुमने की घर मे तलाशो अलमारियां
जिसमे मिलेंगी पुरानी यादें
कुछ श्वेत श्याम तस्वीरे, कुछ डायरी
कुछ किताबें कुछ यादें
पर सोचा कभी तुमने मैं कहाँ ढूंढूं अपनी यादें
सोच लोगे तुम कि
यादें तो सबकी होती हैं
पर एक लड़की क्या याद करे
बचपन से एक एक चीज समेटती है
उसका कमरा उसकी यादें
पर ब्याह होते ही छूट जाता है सब
ससुराल नही ले जा सकती वो इन यादों को
क्योंकि
दहेज के बाजार में इन यादों की न डिमांड है न ही इनका मूल्य
जाने से पहले सहेज जाती है सब एक बक्से में
पुरानी डायरी जिसमें लिखी शेरो शायरी
एक मोटी सी कॉपी जिसमे लिखे ब्याह के गीत
गुड्डे गुड़िया,छोटे टूटे खिलौने
रंग बिरंगी चूड़ियां,सहेलियों की चिट्ठियां
अपनी स्कूल की किताबें कापियां
कापियां जिनका आखिरी पन्ना खोल देता है हमारा छुपा व्यक्तित्व
सबको सहेज कर बक्से में
बसा लेती है ज़हन में न मिटने वाली याद

सुनो ना
लड़कियां यादों के लिए अलमारियां नही खंगालती
किसी सुने कोने में चुपचाप बैठ कर बंद करती हैं अपनी आंखें
और चला लेती हैं फ़्लैश बैक में यादें
पति के घर मे कबाड़ के लिए जगह नही और
पिता के घर से कबाड़ बरसों पहले हटा दिया गया

सुनो ना
आज मैंने भी मन का दराज़ खोला और यादों के सैलाब में बह गई
कुछ आसूं कुछ मुस्कान लिए
कुछ पल को तुझको साथ लिए
जीवन भर की यादों को बेटियां रख लेती हैं मन में

-संगीता पाण्डेय
असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी
होलीक्रास वीमेंस कॉलेज
अम्बिकापुर, सरगुजा छ ग