ये सफ़र नहीं इतना आसान
रोजी रोटी के लिए छोड़ा था गाँव
साथ परिवार को लेकर
यूँ ही निकल पड़ा था
शहर की ओर
आकर देखा तो
इंसानियत कहीं खो गई थी
महामारी इतना तड़पायेगी
सोचा भी नहीं था कभी
सैकड़ों मील का सफऱ
यूँ ही निकल पड़े पैदल
छोड़ दिया रोजी रोटी का शहर
अभी दूर बहुत दूर है जाना
ना कुछ सोचा ना कुछ समझा
बस पोटली उठाये चल दिया
न रास्ते का पता
न रैन का ठिकाना
भूखे पेट बेदम सांसे
लड़खड़ाते कदम
पैरों के छाले
पहुंचना था अपना आसियाना
सुनी सड़कें लताड़ती धूप
कहां जायें किससे पूछे
साथ में पत्नी बच्चे
एक-एक निवाले के लिए तरसे
नहीं पता कब शाम ढली
कब हुआ सबेरा
बस मंजिल तक चलते ही जाना है
चलते-चलते
-डॉ भवानी प्रधान
रायपुर, छत्तीसगढ़