जब आने लगा था तेरे गाँव में
कुछ छोटे कंकर चुभे थे पाँव में
सफ़र तो बहुतेरा ही लम्बा था,
सोचा थोड़ा सुस्ता लूं छाँव में
लगा था मानसून जल्द आएगा,
शायद फंसा नहीं हवाई दांव में
अपना तो जंगल ही भला था,
शोर बहुत शहरी कांव-कांव में
जल्दी-जल्दी में बस तन आया,
‘उड़ता’ रह गयी रूह आंव-तांव में
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा
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