नज़र ही तो है, जो जुर्रत रखती है
उनकी नज़रों से नज़र मिलाने की
ये तो वो आईना है जनाब जिसमें
उनको सब कुछ दीदार हो जाता है
तलब तो बहुत है उनकी नज़रो की
ना जाने कब फ़ाश होगी
पर जब भी ये मुकम्मल होगी तब
नज़र-ए-मोहब्बत खास होगी
ये नज़र-ए-चश्म ही तो मोहब्बत है
और वो कहते है हम वाक़िफ़ नहीं
अब ये उनकी अज़मत ही समझूँ या कुछ और
उनके कासिद ने बड़े उर्यानी लहज़े से वाक़िफ़ कराया
जनाब इतना भी खुलूश ना रखें अपनी नज़रों पे
वो फ़लक़ पे हैं और आप जमीं पे तलाश रहें हैं
अब तो नज़रें भी उन्हीं के नशेमन को तलाश रहीं हैं
अब तो बस यही मशिय्यत है, जब भी ये नजरें मिले
एक तबस्सुम भरे चेहरे से मुलाकात हो
क्योंकि ना जाने खुदा उनको किन गौहर में गूँथ रहा हो
क्योंकि वो तो नायाब हैं,
जिनके मुन्तज़िर में ये नजरें मुसलसल रहेंगी
अभिषेक कुमार अग्रहरि
लखनऊ, उत्तर प्रदेश