Thursday, December 19, 2024
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पुस्तक समीक्षा: अहसास के अंधड़ में दर्ज होते ज़ख्म

समीक्षक- डॉ उषारानी राव
कवयित्री एवं लेखिका
बेंगलूरु, कर्नाटक
कविता संग्रह- दर्ज होते ज़ख्म
कवयित्री- सरिता सैल
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन

कविता व्यापक सत्य को अपनी परिधि में बांधती है। सहज मानवीय अनुभूतियों जैसे दुख, पीड़ा, अभाव, संघर्ष, हर्ष, शोषण आदि समाहित हैं, से कविता की जमीन तैयार होती है।

सचेत रचनात्मकता के द्वारा अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश और कशिश के साथ सरिता सैल कविताओं के माध्यम से विभिन्न भाव बोध के जद्दोजहद से गुजरती हैं। इनके नवीन कविता संग्रह ‘दर्ज होते जख्म’ में सत्तर कविताएँ हैं।

अपने अनुभव और अनुभूति की भाव भूमि पर खड़ी होकर महसूस की गई अकृत्रिम संवेदनाओं को सहजता से अभिव्यक्त करतीं हैं। इनकी कविताओं में स्त्री अस्मिता एवं प्रेम की आत्मीयता का आग्रह तीव्रता से संप्रेषित है। अपने भीतर की उथल- पुथल को सीधे सरल भाव से कहती जातीं हैं। इनकी अनुभूतियाँ लयात्मक तथा बिंबात्मक स्वरूप धारण कर सम्प्रेषणीयता की सहचरी बन पठनीय हो जाती हैं।

सरिता सैल की कविताओं में व्यक्त सरस अभिव्यक्ति इस कविता में हम बखूबी देख सकते हैं- बहती स्याही/हर बार लिखाई भर नही होती/कभी कभी लहू भी होता है औरत के पीठ का”।

एक स्त्री की सहनशीलता उसकी असीमित शक्ति होती है। फिर भी पुरुषवादी समाज स्त्री को अशक्त, अबला तो समझता ही है। उसके प्रति असुरक्षा की भावना से भी ग्रस्त होता है। इन पंक्तियों में मन के दबे हुए भाव अनकही व्यथा बन कर प्रकट हैं। वास्तव में कवयित्री चांद की चाहत नहीं करती बल्कि तपे हुए सूरज को महसूस करना चाहती हैं। पीठ का लहू ही है, जिससे उसको समत्व के अधिकार का संघर्ष के लिए शक्ति मिलती है।

प्रायः यह समझा जाता है कि कवि कल्पना के द्वारा महज भविष्य के सुनहरे आदर्शवादी ताने-बाने को बुनने में अधिक रुचि रखता है, परन्तु कवि सत्य यह है कि कविताओं में सामाजिक परिवेश के भोगे हुए यथार्थ को गहरे अहसास के साथ प्रकट करता है। सरिता सैल जीवन यात्रा के अनेकयामी कोलाहल से मन में उभरे सवालों से टकराती हैं। वस्तुतः स्त्री का कवि होने से परम्परा एवं प्रयोगशीलता के द्वन्द में वैयक्तिक साक्ष्य के द्वारा झूठ और सच को बेहद निकटता से व्यक्त करने का यत्न जुड़ा हुआ होता है। स्त्री मुक्ति की आकांक्षा यहाँ वास्तत्व में उस संकीर्णता से त्राण पाना भी है, जिसमें स्त्री को मनुष्य समझने से दुराव है।

एक अन्य कविता में इन विचारों की पुष्टि आक्रोश से भरी व्यग्रता के साथ होती है -“वे तोड़ना चाहती हैं/हर एक वो किनारा/जो जंजीर बने उनके/तन पर है पड़ा”।

सरिता सैल जीवन के उन तमाम एहसासों को दर्ज करती हैं| जिन्होंने जीवन के रंगों को धूमिल कर दिया है। जिन्दगी में मिलने वाले तिरस्कार, अपमान, छल-कपट, अकेलेपन का जख्म भी अपने भीतर एक हौसला संजोये रखता है। यह उनकी कविताओं में स्पष्टतः मुखर है। इसीलिए कहती हैं कि “मैं बीज हूं असीम सहनशक्ति से भरा”।

वे स्त्री की निजता से कोई समझौता नहीं करती हैं। इस संग्रह की अनेक कविताओं के माध्यम से स्त्री के स्वतंत्र और सबल व्यक्तित्व का पक्ष दृढ़ता से व्यक्त करतीं हैं। आधुनिक कविता ने स्त्री की रुढ़ीगत छवि को तोड़ने प्रयास किया है। वह अपनी कमजोरियों और विशिष्टताओं से निखर कर अबला और प्रेमिका के ठप्पे से बाहर निकल कर अस्तित्व के साथ नजर आती है।

“उन्हें उछाला जाता है हवा में किसी सिक्के की तरह”

“पर आने वाली संभावनाओं की बारिश में उगेंगी कुछ ऐसी स्त्रियां”

“उछाले सिक्कों को अपने हथेलियों पर धरकर/मन के अनुसार उस सिक्के का हिसाब तय करेगी।” यह कविता पुराने मिथ को तोड़कर 21वीं सदी की स्त्री को मुखर करती है। अब वह केवल देह और देवी नहीं अपितु संपूर्ण चेतना और इयत्ता के साथ उपस्थित है। सरिता सैल कविताओं में स्त्री की आरोपित छवि को चुनौती देती है।

“वेश्याओं का जन्म माँ के गर्भ से नहीं होता”

यह कहते हुए वे सामाजिक रूढ़ियों से टकराती हैं। आरोपित छवि से मुक्ति की छटपटाहट भी ध्वनित है। स्त्री अपने अस्तित्व का संघर्ष उन जड़ विचारों से करती चली आ रही है, जहाँ केवल दमन एवं शोषण का साम्राज्य है। प्रभावशाली शब्दों में बेटियों के अस्तित्व को स्वीकारने की गुहार लगातीं हैं। “हमेशा एक दरवाजा/खुला रखना उन बेटियों के लिए/जो कुँए की तरफ मुड़ने के पूर्व/मुड़ जाये उस घर की तरफ”।

यशोधरा, उर्वशी और वह तोड़ती पत्थर आदि कविताओं से यह आश्वस्ति जगी कि स्त्री का अस्तित्व भी प्रमुख है। इसका उदाहरण युवा कवयित्री की ये पंक्तियाँ हैं-

“लड़कियाँ उड़ना चाहती है आसमान में” सरिता सैल लड़कियों पर लादे गये सारे गुणों, आदर्शों और नैतिकता के बोझ को उतार कर एक मनुष्य की तरह सामान्य लड़की के रूप में बने रहने देना चाहती हैं। ताकि वह निडर होकर अपने हिस्से का आसमान नापने का साहस कर सकें। शोषण के चक्रव्यूह को तोड़ती स्त्री बदलते समय की प्रतिकृति है। सरिता सैल कथ्य को लेकर सजग हैं। दृढ़स्वर में अपनी बात कहतीं हैं।

वर्तमान परिदृश्य में समाज की सूखती संवेदना, चिन्ता और चिन्तन का विषय है।

कवयित्री अविश्वास, अव्यवस्था एवं स्वार्थ के कारण संवेदनहीनता की स्थिति पर कहती हैं कि “जहाँ पर बैठ कर वो पूरी बस्ती का चावल गेहूँ/पीसा करती थी चक्की में/बदले में आता था किसी न किसी घर से उसके लिए माड़ भात/भोजपुरी बस्ती को घर समझकर खिलाने पिलाने का रिवाज/शायद लाल बूढी के साथ ही उठ चला था”।

यह कठोर यथार्थ व्यथित करता है। जीवन शुष्क गणितीय समीकरण बनकर रह गया है। इसमें पीडा की तीव्रता है। क्षरित होते सामाजिक संबंधों की व्यथा आज की सच्चाई है। बाजारवादी संस्कृति में मानवीय भाव की विकलांगता दयनीय है।

“इंसानियत के खाते में कुछ रकम मुआवजा स्वरूप अदा कर दी गई”

“यह वक्त पानी के सूख जाने का है”

मनुष्य के बीच से संवेदनाएँ गायब होती जा रही हैं। स्वार्थपरता ने कोमल भावनाओं को आहत किया है। संवेदना रूपी पानी को बचा लेने की छटपटाहट भी दिखाई है। दोनों ही कविताएँ बेहतर मनुष्य बनने की सिफारिश करती हैं। इनमें जीवन की कोमलता एवं विडंबना साझा रूप से अभिव्यक्त हैं। मूलतः सरिता सैल की कविताएँ आदिम भाव की पड़ताल करतीं हैं।

हृदय की गहराई से उपजा प्रेम का स्वर जीवन के लिए ही नही काव्याभिव्यक्ति के लिए भी आवश्यक हो जाता है। इसकी परिधि में संपूर्ण भावबोध की व्यापकता समा जाती है।

“प्रेम वह था जो मैंने/अभाव में भी है जिया/तुम्हारे छोड़कर चले जाने के बाद भी/उपहार में तुम्हारे दिए हुए आँसुओं को/तुम्हारी बदनामी के भय से/कभी अपनी आंखों से बहने नहीं दिया”

यह कविता पूरी मानवीय गरिमा और संवेदनशीलता के साथ अपने हिस्से के प्रेम को मार्मिकता से चिन्हित करती हैं। वे जीवन में फैली उपेक्षा के खुरदुरेपन को हटा कर सहजीवन के प्रेम को ढूंढती हैं। “तरसती है मेरे मकान की दहलीज” देह से परे प्रेम की अविकल खोज दिखाई देती है। इतना ही नही वे अपने स्वाभिमानी रुप के साथ अपने लिए नया स्पेस (विस्तार) भी तलाशती हैं।

किसान का जीवन अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है। बढ़ती महंगाई , बढ़ता कर्ज उसे आत्महत्या की कगार पर ले आया है। कवयित्री की चिन्ता उनकी संवेदशीलता की सूचक है।” होंगे इतिहास के पन्नों पर चमगादड़ बन लटके किसानों की लाशें”। “फंदे पर बार बार लटकता फिर भी उपजाता है अन्न”। सबके लिए अन्न पैदा करने वाला किसान असहाय बनता जा रहा है। किसानों की आत्महत्या हमारे समय का विभत्स यथार्थ है। इस कटु सत्य पर कवयित्री द्रवित हैं। संग्रह में संप्रेषित अकल्पनीय जलावतनी की कविता के द्वारा कश्मीरियों के विस्थापन पर त्रासदी के अंर्तद्वन्द में भावात्मक साझीदार बनतीं हैं।”

इतिहास के पन्नों पर दर्ज होंगे वो तमाम जख्म/हिम की घाटियों में जिस दिन/ऋषियों के कमंडल में/पापियों ने/खून भर दिया था”। सरिता सैल विध्वंसक समय को चिन्हित करते हुए भारतीय संस्कृति में न्यस्त कश्मीरी पंडितों के अस्तित्व को खारिज किये जाने के जघन्य घटना की मानसिकता को उजागर करतीं हैं। आज के समय में विरोधी मानसिकता बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में मानवीय भाव को बचाये रखना सर्वोपरि है। कवयित्री की सकारात्मकता की मिसाल इन पंक्तियों में देखी जा सकती है- “जिस दिन समाज का/छोटा तबका/बंदूक की गोलियों से और तलवार की धार से/डरना बंद कर देगा/उस दिन समझ लेना बारूद के कारखानों में/धान उग आयेगा/बालियाँ हवा संग चैत गाएंगी। इसमें भविष्य- समन्वय की एक झलक है। जिसके द्वारा जीवन के सौंदर्य का संरक्षण किया जा सके।

पिता का चले जाना, औरत, दर्ज होंगे वो जख्म, स्त्रियाँ, राजनीति, कविता, युद्ध मृत्यु, वेश्याएँ, कुर्सी, विस्थापन, मुकम्मल कविता, गर्भनाल की जमी आदि कविताओं में सूक्ष्म मन की सशक्त अभिव्यक्ति है। इस संग्रह कविताएँ पठनीय एवं प्रभावी हैं। नारी मन की अनेक भाव सरणियों को दर्ज करता यह काव्य संग्रह हिंदी साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाए यही शुभकामना है।

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