करूणा, प्रेम और प्रतिरोध: अरुण सातले की कविताएं

डॉ.आशा सिंह सिकरवार

समीक्षक: डॉ. आशा सिंह सिकरवार
साहित्य संवाद अन्तर्राष्ट्रीय महिला मंच गुजरात अध्यक्ष
लोक चिंतन पत्रिका ब्यूरो चीफ गुजरात
अहमदाबाद, गुजरात

गुमशुदा चाबियों की तलाश ( काव्य संग्रह )
कवि- अरुण सातले
प्रथम संस्करण :2024
मूल्य :250 रूपए
शिवना प्रकाशन
सीहोर-466001
मध्य प्रदेश
मोबाइल नंबर- 9806162184

अरुण सातले साहित्य के क्षेत्र में एक परिचित नाम है। देश के सभी साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में उनके गीत एवं कविताएं प्रकाशित होती रही हैं। आकाशवाणी इंदौर और खंडवा से चौमासा, कला समय, तथा अक्षत पत्रिकाओं में लोक संस्कृति से सम्बंधित विविध विषयों पर लेखों का प्रकाशन होता रहा है। अरुण सातले के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘अरुण सातले की कविताएं’, शब्द गूंज और गुमशुदा चाबियों की तलाश। इनके अतिरिक्त लोक साहित्य की दो पुस्तकें हैं-1 निमाड़ की कहावतें और 2 मन म्हारो रम्यो निमाड़।

अरुण सातले के काव्य संग्रह “गुमशुदा चाबियों की तलाश” को कादम्बरी सम्मान व पुरस्कार मिला। अरुण सातले का संग्रह जब मिला तब एक पाठिका के रूप में संग्रह पढ़ने की उत्सुकता को बनाए रखा। एक सांस में नहीं पढ़ी जा सकती हैं, कुछ देर ठहर कर सोचने को बाध्य करती हैं। कविताएं गूढ़ार्थ लिए हैं। ये भीतर ठहरने के लिए समय मांगती हैं। संवेदना की तह खोलो, सोचो- तुम कहां हो? झकझोर कर गंभीर कर देने वाली कविताएं। पाठक के ज़हन में देर तक ठहरने वाली कविताएं। पाठक को सत्ता, व्यवस्था और समाज से मुखातिब कराने वाली कविताएं।

इस संग्रह में जिन साहित्यकारों के अभिमत मिले हैं उनमें डॉ‌. श्रीराम परिहार, पंकज सुबीर, बलराम गुमाश्ता, कैलाश मंडलेकर, भालचंद्र जोशी, गोविंद कुमार, रमाकांत नीलकंठ, प्रो . शहज़ाद कुरैशी, अजय बोकिल, राजनारायन, शैलेन्द्र शरण, गोविंद शर्मा, मनीष वैध, सुधीर देशपांडे आदि। एक लम्बे अरसे से अरुण सातले जी की कविताएं पढ़ी जा रही हैं।

“एक कुशल आलोचक का मुख्य कर्तव्य है कि वह आलोच्य रचनात्मक कृति में छिपे हुए नंदतिक प्रहर्ष (एस्थेटिक रैपचर) और युग संदेश को बुद्धिगम्य और बोधगम्य भाषा में पाठकों-सह्रदयों के समक्ष प्रस्तुत करे।” (समकालीन भारतीय साहित्य जनवरी फरवरी 1996 अंक 63 पृष्ठ- 159 संदर्भ )

“गुमशुदा चाबियों की तलाश” इस संग्रह का नाम है और संग्रह की पहली ही कविता, जो एक सशक्त कविता के रूप में सामने आती है। कविता के केंद्र में बच्चे हैं। आदिवासी कस्बे के बच्चे। आदिवासी जनजाति मेहनती होते हुए भी गरीब और असुविधा पूर्ण जीवन जी रहे हैं। कविता बहुत मार्मिक है क्योंकि बच्चे जो कुपोषण गस्त हैं उनके होंठों पर हंसी लाना कवि का सपना है- खोजता फिर रहा हूं कुछ ऐसा/जो रोते हुए हर बच्चे के/होंठों पर चस्पा कर दे हंसी (पृष्ठ 13) बच्चों के होंठों पर हंसी कैसे आयेगी? परिस्थितियां भयावह रूप ले चुकी हैं रोटी और अस्पताल जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम हैं। अरुण सातले मां और बच्चे दोनों का एक कारूणिक चित्र खींचते हैं- “कुपोषण के शिकार होकर/मां की सूखी छाती से चिपक कर मरना कुबूल करते हैं” (पृष्ठ 13)

आदिवासी कस्बे के बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। आदिवासी जनजाति अंधविश्वास के कारण बच्चों को अस्पताल नहीं ले जा पा रही है। कवि ने व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है जिसमें अस्पताल बन गये हैं पर शिक्षा नहीं है। आदिवासी जनजाति के पास रोटी नहीं है। अशिक्षा के कारण उन्हें भरोसा नहीं है कि बच्चे अस्पताल में दवाइयों से ठीक हो जाएंगे। 

क्रूर व्यवस्था और अन्यायी तंत्र पर आदिवासी जनजाति को विश्वास नहीं है कि अस्पताल में उनका ईलाज होगा या दवाइयां मिलेंगी। जो व्यवस्था श्रमशक्ति के आधार पर खड़ी है उसने उनकी प्राथमिकताओं से मुंह फेर लिया है। यह कैसा विकास है?

अस्पताल तो हैं ईलाज नहीं। बच्चे भूख से मर रहे हैं और सत्ता विकास की ध्वजा पताका फहरा रही है। अरुण सातले जी ने संवेदना को बहुत सूक्ष्म स्तर पर व्यक्त किया है। अरुण सातले जी एक दृश्य से निकल कर दूसरी दृश्य में भयावह सच्चाई से रूबरू कराते हैं। आदिवासी लड़कियों के साथ बलात्कार रोज की घटना बन गई है और कुछ न कर पाने की विवशता आदिवासी जन जीवन दर्दनाक अत्याचारी व्यवस्था से गुजर रहा है- “किसी सुनसान इलाके से/सन्नाटे को भेदती किसी लड़की की/एक चीख सुनाई दे/तो सड़क पर चलते लोगों के पांव/जंजीरों से जकड़े न होकर” (13)

ये कविता बहुत गंभीर प्रश्न उठा रही है लड़कियों पर हो रही बर्बरता के लिए कौन जिम्मेदार है? आदिवासी लड़कियों की सुरक्षा का प्रश्न आज महत्वपूर्ण बन गया है। जानते सब हैं पर बोलता कोई नहीं। आदिवासी वर्ग अपनी लड़कियों की हिफाज़त नहीं कर पा रहे हैं उनके पांव जंजीरों से बंधे हैं। अरुण सातले ने आदिवासी वर्ग की दयनीय स्थितियों का यथार्थ चित्र खींचा है। कविता में केवल करूणा नहीं उपजती बल्कि आक्रोश, क्षोभ, पीड़ा एवं विद्रोह भी तटस्थता पर खरा उतरता है। अंत में कवि की संवेदना एक ठोस जमीन तलाशती है- मैं उन गुमशुदा चाबियों की/तलाश में हूं/जो खोल दे होठों पर लगे /चुप्पियों के ताले” (14)

काव्य विन्यास संवेदना, चिंतन एवं साक्ष्य कवि के आत्म संघर्ष पर खरा उतरता है। करूणा से उत्पन्न अपराध बोध कविता को अर्थवान बना देता है।

विद्रोह की आग व्यवस्था में परिवर्तन के लिए लोगों की चेतना को जागृत करती है। अरुण सातले जी की कविताएं आम आदमी के यथार्थ की कविताएं हैं। वे रोटी और भूख के बीच आदमी की पीड़ा को पहचानते हैं- भूख सबके पास होती है/मगर /रोटी नहीं होती/सबके पास (87)

कवि प्रकृति के सौंदर्य में स्वयं को मुग्ध होने के लिए नहीं छोड़ता है। रात का दृश्य आम आदमी की आवश्यकताओं से जुड़ गया है- चांद, मुझे/भात का ढेर लगता है/और तारे/रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े (87)

चांद को भात की तरह देखना कवि अपनी सीमाओं को लांघ कर नई कविता के लिए जमीन तैयार करता है अपना यथार्थ वादी दृष्टि कोण स्पष्ट करता है। अरुण सातले जी बच्चों की भूख पर निरंतर बात करते हैं। ‘रौशनी से वंचित बच्चे’ यह कविता वर्तमान परिदृश्य से जुड़ गई है, जिसमें बच्चों के प्रति राजनेता अपनी संवेदना अभिव्यक्त करते दिखाई पड़ते हैं। ऐसे फरेबी, दंभी, छलावे से भरे दृश्य अक्सर टी वी पर देखें जा सकते हैं जिनका अंत एक फोटो से होता है- “आज इंद्रप्रस्थ की सरकार ने/रौशनी से वंचित बच्चों को/ढ़ेर सारी धूप बांटी”(108)

आज मीडिया की भूमिका असंवेदनशील हो गई है जो झूठे,क्षणिक दृश्यों के साथ हो जाती है और एक बड़ा सच कैमरे के सामने ढक जाता है। ‘अमर घर चल’ कविता में एक परिवार का बेघर होना और बच्चे का भयभीत होकर भटकना केन्द्र में है- “बच्चा, खुश होकर पढ़ रहा था/अमर, घर चल /घर, चल अमर चल, घर अमर/घर पढ़ना उसे बहुत अच्छा लगता है” (121)

शिल्प का वैशिष्ट्य कविता को विशेष बना देता है। कवि सरलता के शिल्प में गहन अभिव्यक्ति देता है। एक बच्चा अभी बस प्राथमिक शिक्षा ले रहा है उसे नहीं मालूम व्यवस्था में घर का मतलब क्या है? बच्चे स्कूल छूटने के बाद घर की तरफ दौड़ते हैं। घर पहुंचना उनके लिए मां-बाप के पास पहुंचना है। कविता बच्चे के भीतर डर की अवस्था पर टिकी रहती है बच्चा घर लौट कर जब आता है देखता है- अब बच्चा, बहुत डर रहा है/ चल रहा है बुल्डोजर (121)

प्रश्न यह है कि बुलडोजर कौन चला रहा है? कहां चला रहा है?और क्यों? गरीब वर्ग की झुग्गी-बस्तियों पर बुलडोजर चलाये जा रहे हैं। उन्हें इमारत बनानी है ताकि जमीन की कीमत मिल सके। बच्चा परेशान है जहां घर था वहां न घर है,न माता पिता। झुग्गी झोपड़ियों को आग लगा दी गई, जमीन हथियाने के लिए बुलडोजर चला दिया गया। कवि कारूणिक दृश्य सृजित करता है- धुआं, उठ रहा, घर के ऊपर/भटकता रहा वह दर ब दर/कांपता रहा, थर-थर (121)  बच्चा वीरान बस्ती में भटक रहा है, अपना घर, माता पिता को खोज रहा है और भय से कांप रहा है। अंत में कविता अपने उत्कर्ष तक पहुंच जाती है- हुआ, बेघर. .(121)

बहुत कम शब्दों में अरुण सातले कविता में अर्थ गांभीर्य रचते हैं। शोषण के विरुद्ध जितनी भी कविताएं हैं वे मन में करुणा और विद्रोह पैदा करती हैं। अरुण सातले की कविता में आत्मिक रिश्तों में वे पिता को देखते हैं और एक किसान का व्यक्तित्व फलक पर उतारते हैं।

“जीवन भर रेगमाल रहे पिता” कविता में कवि ने अपने पिता से मेहनत और श्रमशील जीवन को विरासत में पाया है- “खेत को हलते वक्त/जिस लकड़ी के हल की/मूंठ पकड़ वे हल चलाते/बताते/देख मूंठ की खुरदरी सतह/चिकनी हो गई है/हालांकि उनकी हथेली/मूंठ की तरह खुरदुरी हो चुकी थी/जीवन भर ऐसे रेगमाल रहे पिता/खुरदुरे जीवन की सतहों को चमकीली/और चिकनी बनाते रहे” (84)

भारतीय किसान की संघर्षशील भूमिका अरुण सातले अपने पिता में देखते हैं। प्रतीकात्मक अभिव्यंजना में मूंठ का प्रयोग करते हुए अपनी कलम को धारदार बना लेते हैं। पिता का संघर्षशील जीवन ने कवि को कभी भी कर्म पथ से भटकने नहीं दिया, जीवन की कठिनाइयों का दृढ़ता पूर्वक सामना किया। उन्हें मजदूर, गरीब वर्ग, शोषित , पीड़ित जनता का पक्षधर बना दिया।

अरुण सातले की प्रेम कविताएं प्रेम का विस्तार हैं। प्रेम में आंखों की भाषा पढ़ लेना और समझने का हुनर प्रेम को परिपक्व बनाता है-मुझे लगा/तुम्हारी आंखों का यह करतब/किसी शर्म या हया नहीं सबब नहीं/ वरन प्रेम पूर्णतव में/पाने की चाहत। (60)

स्त्री को बिना बोले समझ लेने का हुनर कवि को आता है।

प्रेम को पूर्ण रूप में पाने की चाहत कविता को विशेष बनाती है यहां स्त्री का परिपक्व एवं निश्छल प्रेम की परिणति विवाह में है। अरुण सातले अनुभूति के स्तर पर प्रेम को वेदना की खाई में नहीं धकेलते हैं बल्कि प्रेम को विवाह में परिवर्तित करके परिपक्व दृष्टि का परिचय देते हैं।

प्रेम चेतना के स्तर पर जीवंत हो उठा है- मैं फुग्गा हूं/तुम अपने होंठों के बीच/दबा कर मुझमें/अपनी गर्म सांसों से/हवा तो फूंको! (60)

जब व्यक्ति शरीर और मन दोनों ही जगहों पर संस्पर्श पाता है तब आत्म विश्वास से भर आता है- अधर चुम्बित तुम्हारी फूंक से मैं/फूलकर कुप्पा हो जाऊंगा (60) प्रेम और श्रृंगार विवाह के बंधन में साकार हुआ है। वहीं प्रेम को दो व्यक्ति के रूप में सदैव अजनबी अहसास की तरह कभी जाना नहीं जा सकता है। वर्तमान परिदृश्य में प्रेम का भयावह सच्चाई से अवगत कराते हैं। एक दूसरे को जान कर प्रेम नहीं होता- आजकल कितना जरूरी हो गया है/किसी के बारे में सब कुछ जान लेना/जब सब कुछ जान लिया/तो फिर/दो अजनबियों के बीच प्रेम कैसा? अर्थात प्रेम को कभी जाना नहीं जा सकता है प्रेम एक खोज है। प्रेम की यात्रा में कोई नहीं, व्यक्ति की यात्रा में हैं। इन कविताओं में अनुभव तथा ऐन्द्रिय सम्पन्नता दृष्टि का विकास करती है।

कबीर एक दम सटीक, सार्थक सिद्ध होते हैं जब अरूण सातले कहते हैं- प्रथमत: प्रेम में देह नहीं/आखर होते हैं/ढाई आखर (61) शब्दों से ह्रदय तक पहुंचने का मार्ग बनता है और फिर ये प्रेम की यात्रा- “देह तो बाद में आती है/विदेह होने के लिए। प्रेम की यात्रा देह पर आकर पूरी नहीं होती बल्कि देह लुप्त हो जाता है प्रेम बचा रहता है जिसमें शरीर गौण हो जाता है। कवि के भीतर जितना गहरा प्रेम होगा, जितनी प्रेम की समझ होगी, विद्रोह भी उतना आक्रामक, आक्रोश और आक्रांत होगा। प्रेम अरुण सातले जी के यहां व्यक्ति विशेष का परिचायक न हो कर मानवता का विस्तार है।

इसी क्रम में कई और प्रेम कविताएं दर्ज होती हैं उनमें गति का संगीत, कड़वाहट, भीगना, तुम्हारा होना, बातें भीगी, देह वंशी पर आदिम राग, वर्षा राग प्रेम कविताएं, स्त्री पुरुष तंत्र, बिछोह आदि।

अरुण सातले की ये कविताएं मनुष्य जीवन के विविध आयाम स्थापित करती है प्रेम, प्रकृति और मानवीय मूल्यों, सरोकार कविता के केंद्र निहित हैं।

अरुण सातले जी रचना‌‌धर्मिता को मानवीय मूल्यों से जोड़ कर देखते हैं, कवि होना बहुत कठिन है क्योंकि कि कवि की रचनाधर्मिता तय करती है- “हमारी रक्त वाहिनियों में/जितना गर्म लहू बहता है/उतना ही ताप भी/कभी होना चाहिए/तुम्हारे द्वारा बोली गई/या लिखी गई भाषा में/फिजा में सुलगते सवालों की/काट छिपी है /तुम्हारे लिखे हर शब्द में।” (15 )

कवि की रचनाधर्मिता तय करती है संवेदना की पक्षधरता और कविता के भीतर मनुष्य के लिए कितनी जमीन बची है और परिवर्तन के लिए शब्दों में कितनी आग है? इस दृष्टि से “फिर से” और “अधिपति” कविता महत्वपूर्ण है। सत्ता पर करारी चोट करते हुए व्यंग्यात्मक शैली में अरुण सातले जी लिखते हैं- छद्म रचता है/बिना साथ के/सबके विकास का (28 ) “अक्षर दीप्त होते हैं” आग फैलती रही/लपटें उठती रही/धुआं,उस ऊंचाई पर था/जहां सत्ता होती है/सत्ता वहीं होती है- जहां धुआं हो”(32)

सरल शब्दों में व्यंग्य की गहरी चोट करते हैं। “आवाज़”कविता में शब्दों की ताकत से वाक़िफ कराते हुए अरुण सातले लिखते हैं- तुम्हारी जुबान काट ली जाए/विचार होंगे फिर भी शब्दों के भीतर  (95 ) आवाज में शब्द, शक्ति का कार्य करते हैं। अरुण सातले सत्ता और व्यवस्था के विरोध आवाज़ उठाते हैं। 

अरुण सातले की कविता विद्रोह एवं प्रतिरोध की कविता है। जन सरोकार से कवि का जुड़ाव ही विद्रोही चेतना को जन्म देता है। कविता में प्रतिरोध का स्वर मुखरित हुआ है। उनकी कविताओं में गहनता, सरलता और सहजता तब विलक्षण बन जाती है जब वे दो पंक्तियों के बीच अर्थ भर देते हैं। छोटी-छोटी कविताएं व्यापक फलक रचती हैं। कविताओं में लोक जीवन, आदिम राग,आम आदमी की व्यवस्था के प्रति बेचैनी, आदिवासी जनजाति के प्रति संवेदनशील दृष्टि और मनुष्यता से भरी कविताएं बार-बार पढ़ने के लिए पाठक को प्रेरित करती हैं।