मैं जानता हूँ-अमित कुमार मल्ल

मैं जानता हूँ
जून की दोपहरी में
बहती लू में
कलियाँ नहीं मुस्कराती

जानता हूँ मैं
भागते  भागते
थक कर जिस दीवार पर टेक ली
उसी के खंजरों ने
छुरा घोंपा था

लिपटते घिसटते भागते
रेत में पानी दिखने पर भी
पानी नहीं मिलता

सत्य धर्म पर
रहते
लड़ते भी
विजय नहीं मिलती

तमाम मेहनत व नेक नियत
के बाद भी
हर बार
हार जाते  हो
कोई साथ नहीं देता
कोई सहारा नहीं देता

जानता हूँ मैं
नाउम्मीदी के मंजर में
उदासी ही पलती हैँ

मैं जानता हूँ
हार सिर्फ हार नहीं होती
चोट होती है
आत्म विश्वास पर
दिल पर
दिमाग पर

यह भी जानता हूँ
लहरो से लड़कर भी
किनारो से हारता है आदमी

इसीलिए तुम गुमसुम रहती हो
उदास रहती हो
रोती रहती हो

हार में हंसी भी हारती है
ताजगी भी हारती है
प्रसन्नता भी हारती है

तुम रो लेना
मन कहे तो और रो लेना
उम्मीदों की मौत पर रो लेना
आत्मविश्वास खंडित है तो भी रो लेना
लेकिन
लड़ना
लड़ना मत रोकना
जिंदगी की अंतिम साँस तक

-अमित कुमार मल्ल