सुनो!
हर खाँचे में
सही बैठने को
छील देती हो
क्यूँ हर बार
ज़रा सा मन
कब समझोगी!
आदर्श
आखिर कुछ भी नहीं होते
हर बार
हर किसी ने
गढ़ा है उन्हें
अपने लफ़्ज़ों में
अपनी सहूलियत से…
तुम तो उपजी भी
शायद
एक आस को तोड़
जैसे बंजर परती पर
उग आई हो अमरबेल
या कोई पीपल
पत्थरों का सीना चीर।
इस तपती
रेतीली भूमि पर
तुम्हारा होना ही
है नमन योग्य
फिर क्यों शर्मिंदा हो
अपने होने पर
कि बार-बार
खुद को तोड़
अपने टुकड़ों से
भरती हो दरारें,
आंसुओं के
महीन रेशम से
करती हो रफू
जिंदगी के ताने-बाने,
जोड़ते रहने की
फितरत में
ढल गई हो तुम!
दोषी हो!
तुम ही अपनी
कि मौन रहीं सदा
और सहमत रहीं।
गढ़ा जाता रहा तुम्हें
बरसों बरस
उनके अनुसार
उम्मीदों की छैनी से
छीली जाती रही,
चमक की आस में
घिसी जाती रही,
हौसलों की आँच में
तपाई जाती रही।
क्या समझी नहीं
अब तक
कितना भी तपो
किसी का कुंदन बन पाना
नहीं है आसान
क्योंकि छिल-छिल कर
अस्थि स्तर तक भी
तुम पाओगी
या तुमसे कहा जाएगा
कि बस ज़रा सा
और होता
तो बेहतर था
तुम कितना ही
छिलो, घिसो या तपो
वो ज़रा सा
कम रह ही जाएगा
जिन मानकों को
रखा गया है
तुम्हारे सामने
उनमें से कोई
नहीं थी संतुष्ट।
ना सीता, ना राधा,
और न ही पार्वती
देवियाँ होकर भी थीं
अभिशप्त ज़रा ज़रा।
सूखने दो आंसुओं को
इनके नमक से
करना है तुम्हें
सत्याग्रह
बाहर आओ
अनंत वर्जनाओं से
कि तुम्हें ही तो
रचनी है सृष्टि
समझाना है
स्वार्थ सिंझी दुनिया को
कि किसी रोज़
दुनिया की सब औरतें
एकजुट हो अगर
बांध लेंगी अपनी कोख
तो सिमट कर
मिट जाएगा संसार
-भावना सक्सेना