पहले मौत ने खदेड़ा
अब रोटी रगेद रही
देखता हूँ कि किस्मत भी मेरी,
मुझसे आँखें तरेर रही
अब तो असहाय हूँ,
और निरुपाय हूँ
‘वोकल फ़ॉर लोकल’
की मुहिम ही,
कुछ हद तक,
आत्मा मेरी समेट रही
उपभोक्ता बाज़ार का मैं,
बस एक उपादान हूँ
हाँ! मैं कर्मकार हूँ,
हर स्वप्न का आकार हूँ,
श्रम का स्वेद हूँ,
कर्म का नैवेद्य हूँ,
किन्तु सर्वव्यापी महामारी में,
क्या मैं बस समय का खेद हूँ
-ज्योति अग्निहोत्री ‘नित्या’
इटावा, उत्तर प्रदेश