हर सुखन की चीज शरबत नहीं होती
उसे मेरे घर आने की फुरसत नहीं होती
इस गुलिस्तां में गुले-इशरत नहीं होती
टहले-काबिल, सैर की फुरसत नहीं होती
ग़म से छूटकर मर जाना मुनासिब हो
हमें उसके ग़म से मरने की भी फुरसत नहीं होती
वो दिल क्या जिसे तमन्ना-विसाल न हो
वो चश्म क्या जिसे दीदे-हसरत नहीं होती
ख़ाक होकर भी फ़लक के संग हो करार
एक साअत कोई शीशे सी अशरत नहीं होती
देखो इस सूरत-कदे में है हज़ारों सूरतें
कोई सूरत-ए-गर कभी बेसूरत नहीं होती
तुम देख कुछ अकसर सोचते हो ‘उड़ता’
तेरी पलकों पर इश्के-ख़्वाबे-हुज़ूरत नहीं होती
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा
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