वंदना सहाय
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भूखा क्या लिखे
चाँद को जब देखे
वो रोटी दिखे
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पलकों तले
कभी सपने होते
तो कभी आँसू
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खुद न खाती
मुनिया पहुँचाती
लंच के डिब्बे
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वसीयत में
वो छोड़ गया कर्ज
बच्चों के लिए
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डैनों में चूजे
मुर्गी ने जब भरे
माँ याद आयी
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कैसे ये शब्द!
कभी हमें जोड़ते
कभी तोड़ते
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आम आदमी
बेरंग जिंदगी का
बेरंग किस्सा
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कभी काट दे
ये जुबान की कैंची
नाजुक रिश्ते
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नहीं भरते
जिस्मों के मरहम
मन के घाव
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सूख रहा है
नदियों के साथ ही
पानी आँखों का