भूख से तड़पते देखा
जब अपने जायों को
धधकी ज्वाला अंतस में
पर दाना नहीं खिलाने को
कंकाल सा तन लिए
पेट चिपक गया था पीठ को
सिसक रही थी मां कोने में
बेबस सी लाचार वो
भूख मिटाने को लाल की
खुद बिकने को तैयार थी
कंकाल मात्र जो शेष बची थी
रास किसी को न आई थी
जब रुदन न सह पाई लाल का
चिथडों में लिपटी भागी वो
श्वान लड़ रहे थे जिस रोटी को
उसे छीनने लपकी वो
भूख के आगे हार गई थी
छल बल सब लगा गई थी
एक टुकड़े की खातिर
वो श्वान से भिड़ आयी थी
महज़ एक टुकड़े को
गरिमा राकेश गौतम
कोटा, राजस्थान