इंसानियत बिक रही है- ओनम साहू

इंसानियत बिक रही है
हां, मैं बिकाऊ हूं
इन भरे बाजारों में
जो बिकाऊ है, बिकता है
जो बिकाऊ नहीं जरूर बिकता है

फैला चारों ओर स्वार्थ यहां
तत्पर इंसान
अपना परमार्थ बेचने को
यहां हर चीज बिकती है
हर चेहरा बिकता है
होती है संवेदना बिक कर खोखली
बिकती है यहां इंसानियत
यहां हर किसी को
बिकती चीजों की तलाश है

अब मुझे मालूम हुआ
किस चीज की तलाश है
सब खरीदने की भाग दौड़ में लगे हैं
दिन-रात आठों पहर
पहचान हुई
मुझे भी इस बारे में
अब मैं भी लग जाऊं कतार में
सच कहूं तो
लग गई हूं कतार में
सब लगे हैं
एक दूसरे को बेचने
इस बाजार में
किस किस का नाम लूं

इंसानियत बिक रही है
इस बाजार में
बिक रही बरसों से
सब खरीदने में लगे तो
बिके क्यों नहीं
जरूर बिकेगी
यहां हर चीज बिकाऊ है

शिक्षा बिक रही है ,
सत्ता बिक रही है,
जमीर बिक रहा है,
एक दूसरे को बेचने की होड़ से लगी यहां
हर कोई बिकने को तैयार यहां
जो बेच रहा
कुछ बचा नहीं पास उनके
खाली घर सूना आंगन
फिर भी सरेआम घूम रहा
सचमुच ,
अब इंसानियत बिक रही है
इस बाजार में

-ओनम साहू