प्रवासी भूख- रमेश कुमार सोनी

ये कौन सा शहर है?
इतने बड़े घर में कौन रहता है?
इतने पुलिस वाले यहाँ क्यों हैं?
हम लोग क्या ऐसे ही पैदल जाएँगे?
हमारा घर कब आएगा?
हम घर वापस क्यों लौट रहे हैं?
ये कोरोना बीमारी क्या है ?
ऐसे ही अनगिनत सवालों के साथ सफर में हैं इन दिनों
प्रवासी मज़दूरों के परिवार
काले डामर की भोमरा वाली गर्म सड़क पर नंगे पाँव
पिता ने बेटे को सिर पर बिठा रखा है बेताल की तरह
माँ ने बेटी को गोद में लिया हुआ है
उसके सिर पर गृहस्थी भी यात्रा पर है

पेट और पीठ के इस संधिकाल में पुलिस चीखकर पूछती है-
पहचान पत्र दिखा?
चार लाठी खाने के बाद भूख भी भाग जाती है
रात भर यात्रा चलती है
दोपहर पेड़ों की छाँव में पानी पीकर सोने से बीत जाती है

उसे सेठ ने काम नहीं है वापस जाओ का फैसला सुनाया था
लौटाया था बैरंग
राशन, पैसे खत्म हो गए थे
जिंदा रहने घर लौटना ही था

आखिर हम रहते ही हैं-
गरीबी रेखा के बीहड़ गाँव में
नाम हमारा मज़दूर है
हमारे पसीने से घीन करने वाले
आज भोजन पैकेट लिए खड़े हैं सेवा की कामना में

उन्होंने पूछा-
कब से खाए हो?
पता नहीं मालिक
भूख नहीं लगती क्या?
नहीं लगता साहब
खाना खाएगा?

बच्चों से रहा नहीं गया पूछ पड़े,
खाना किसे कहते हैं?
माँ रो पड़ी है
पिता हाथ जोड़े भात की लाइन में लगे हैं

दुःख के इस मौसम में
पतझड़ी पत्तियाँ उनकी ही भाषा में अपना रुदन सुना रही थीं
बच्चों को भात खिलाते हुए माँ-बाप
बीच-बीच में मुस्कुराते हुए रो रहे थे
बच्चे फिर पूछ रहे थे
भात को खाना कहते हैं क्या?

-रमेश कुमार सोनी
जेपी रोड- बसना
जिला- महासमुंद, छत्तीसगढ़