जून: चित्रा पंवार

चित्रा पंवार
गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश

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मेरे प्रेम पर संदेह है ना तुम्हें?
अपने प्रेम को साबित करने का
मेरे पास
मात्र इस बात के
कोई प्रमाण भी नहीं
कि जब अपनी देह भी
काटने को दौड़ती है
जून के उन दहकते दिनों
में भी मैंने
तुम्हारे आलिंगन से
कभी मुक्ति नहीं चाही..

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दिन के तीसरे पहर
चूल्हे की आग पर रोटी सेंक रही स्त्री
कनपटी तक लटकी पसीने की बूंदों को
छिटक खेत जोतने में मशगूल किसान
तसला भर पत्थरों को आसमान की ओर
उछालता मजदूर
तीनों बुदबुदाए
‘पेट की आग के आगे
यह ताप
कुछ भी नहीं !’
इतना सुनकर
सिकंदर बन
दुनिया फतह करने निकले
जून के सूरज का
मुंह लटक गया

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मां की यादों में
पूरे साल के नाम पर दर्ज मिला
बस एक माह
हैरान हैं उसके बच्चे
पूरी दुनिया के साल का कलैंडर बारह महीने का
और मां का साल सिर्फ एक माह का!!

मां बनने से लेकर
अपनी मां की मृत्यु वाले बरस तक
मां का हर एक साल
बस इस एक माह की प्रतीक्षा में बीतता रहा
मां का अतिप्रिय स्नेह की भूमि पर तपता जून का महीना
यही था जब लंबी जुदाई के बाद मां मिला करती अपनी मां से
अपने पेड़ की छाती से लिपटी अमरबेल बनी
घंटों जलमग्न हुआ करती
खुद को विस्मृत कर चुकी मां को इसी मास ने पुकारा
उस के अपने नाम से
इसी की छांव में कच्ची नींद की ऊंची चट्टान पर
सूरज के सर के ठीक ऊपर आने तक
मां बेफिक्र पड़ी सोई रहती पैर पसारे
इसी माह ने बांटे मां के सारे सुख दुःख
इसी ने बचपन की सखियों से मिलवाया
बच्चों ने इन्हीं दिनों में देखा
मां के भीतर बैठा हंसता, अल्हड़ शिशु, गुमनाम प्रेमिका
अपनी मां के जाने के बाद
मां ने आजाद कर दिया इस माह के कबूतर को भी
अपने कलैंडर की कैद से
अब यह महीना बस मां की सुखद स्मृतियों की बकसिया में बंद है
जिसे वह खोल बैठती है यदा कदा
जिसे अपने बच्चों को दिखाना
उसके पसंदीदा कामों में से एक है
और उसके बच्चों के लिए बकसिया में बंद जून
विरासत में मिला सबसे अनमोल खजाना।

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इन्हें प्रेम में मिले गुलाब
से अधिक प्रिय लगी
अपने मेहनतकश प्रेमियों के
पसीने की गंध से भरी देह
तरबतर कमीज की जेब से निकले
आपस में चिपके दस, बीस के नोट
जब इनकी हथेली पर रखे गए
ये चांद तारों के पा जाने की अनुभूति से भर गईं
इन्होंने जलते दिनों में
प्रेमियों के साथ नापे जीवन के तपते रेगिस्तान
दुःख की भट्टी में जब प्रेमी धुआं धुआं होने को आए
इनके होंठों ने नेह की बौछार से
बचा लिया उनका अस्तित्व
इन प्रेमिकाओं ने पूरे चांद की रात को
अपने प्रेमियों के सीने पर औंधे मुंह लेटे हुए
बुलंद आवाज़ में कहा..
तुम्हारे सामने फरवरी कुछ भी नहीं है
मेरे जून!
हमारे संघर्ष की गांठ रूमानियत के मलमल से कहीं मजबूत है
मेरी जान