उसका वजूद: वंदना सहाय

वंदना सहाय

घिसती रहीं उसकी एड़ियाँ
और वह हर दिन थोड़ी छोटी होती गयी
उसका वजूद अब किसी को नजर नहीं आता

लेकिन वह स्वयं देखती है
उस सघन वृक्ष को
जिसके पौधे को सींचती रही थी वह
और आज सिर ताने खड़ा है
बना है आश्रय पशु-पक्षियों और पथिकों का
दे रहा है वायु को भी प्राणदान

देती है जिसे अर्घ्य
वह अरुणिम सूरज
बन प्रकाशपुंज
जगमग करता है सारी दुनिया को
दूर भगाता है अंधकार

घोंसले से जब गिर पड़े थे
एक चिड़िया के बच्चे
और भर से कातर हो कर रहे थे- “चीं-चीं”
तब उसने ही उन्हें उठा कर डाला था
पुनः घोंसले में
और माँ चिड़िया के साथ रखा था
उनका ख्याल
आज वे सशक्त डैनों के साथ
उड़ रहे हैं उन्मुक्त गगन में
सारे नभ को नापते हुए

पर अब लंबे उम्र के सफर ने
घिस दिये हैं एड़ियों के साथ घुटने भी
पर अब भी उसका मन
स्वयं को विकलांग नहीं महसूस करता

कुछ दे भी गयी है उसकी जिंदगी उसे
घिसवा कर उसकी एड़ियाँ