डॉ. निशा अग्रवाल
जयपुर, राजस्थान
न ऊँचाई की उड़ान उन्हें, न ज़मीन का ठिकाना,
बीच भंवर में फंसा हमेशा, मध्यम वर्ग का फ़साना।
करें मेहनत दिन-रात मगर, फिर भी रहे अधूरा,
सपनों के इस बोझ तले, हर पल जीवन सूखा-सूरा।
न अमीरों से रिश्ता कोई, न गरीबों में होती गिनती,
फिर भी हर टैक्स की मार में, इन पर ही होती बिनती।
सब्सिडी नहीं, कोई छूट नहीं, न कोई आरक्षण वाला,
बस हर संकट की बेला में, इन्हें ही समझो आला।
बच्चों की पढ़ाई का बोझ, कंधों पर भारी होता,
फीस, किताबें, स्कूल खर्च, हर दिन ही खर्चा रोता।
बुजुर्गों की दवा, इलाज खर्च, सब खुद ही ये उठाते,
फिर भी सारे सपनों को, चुपचाप यही निभाते।
ना कोई सरकारी योजना, इन पर असर दिखाती,
राहत की हर स्कीम बस, कागज तक ही रह जाती।
फॉर्म भरें, दफ्तर फिरें, आशा लेकर जाएं,
हर तरफ़ से ठुकराए जाएं, जवाब कभी न पाएं।
कर्ज में दबे, सपनों में जिएं, फिर भी न करें शिकायत,
देश की रीढ़ हैं कहलाते, सहते सब कुछ निःशब्द विहायत।
कभी कहें न थकान उन्हें, कभी न रोएं खुलकर,
मध्यम वर्ग की यही व्यथा-जीएं हर पल खुद को भूल कर।