प्रकृति की गुहार- प्रीति कुमारी

धरोहर हूंँ इस धरा की,
ऐसे न मुझे यूंँ बर्बाद करो

पूर्वजों ने सहेज कर रखा,
तुम भी ज़रा कृतज्ञ बनो
हनन न करो मेरी काया का,
दर्द हमें भी होता है
चलती कुदाहली मानव की जब,
दिल हमारा सहरता है

सुख की छाया दे देती हूंँ,
कष्ट सारे सह लेती हूंँ,
तब भी कुछ न कहती हूंँ
हनन होता हमारा जब,
अंदर अंदर ही रो लेती हूँ

अस्तित्व हमारा न मिटने पाए,
इतना सा संरक्षण करना
तुम वृक्षारोपण करना,
जग को हरा भरा रखना,
सौंदर्य पूर्ण धरा बनाए रखना

यह जग आंगन महकाए रखना,
संसार हमें भी प्रिय है मानव,
हम भी यहांँ पर बसना चाहे,
खुशहाली तुम तक पहुंचाए,
जग में भीनी सुगन्ध फैलाए

वृक्ष लगाओ वृक्ष लगाओ,
घर आंँगन तक हरियाली पहुंँचाओ
प्रकृति से सुंदर संसार लगे,
खग, विहग, मानव सब इसकी छांँव मे पले

लोलुपता और लालच में,
अंँधाधुन कुल्हाड़ी चला रहे,
पशु पंछी पंथी सबको आश्रय विहीन बना रहे
प्रकृति के लोप से जग सूना रह जाएगा,
मानव भी अपना संरक्षण नहीं कर पाएगा

प्रकृति धरा की अमूल्य धरोहर,
इनका न अहित करो
मानव हो तुम मानव ज़रा,
प्रकृति का संरक्षण करो

धरोहर हूंँ इस धरा की,
ऐसे न मुझे तुम बर्बाद करो

-प्रीति कुमारी
अध्यापिका,
लुधियाना