रूची शाही
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वो आंसू कैसे होते होंगे
जो बहते होंगे किसी पुरुष की आंखों से
शायद मोती से कम नहीं होते होंगे
या उससे भी ज्यादा बेशकीमती हों
उन आंसुओं में वफ़ा की खुशबू होगी
उनमें नदामत की ख़लिश होगी
उनमें बिछड़ने का दुख होगा
उनमें उन तमाम बातों का तजकिरा होगा
जो अनकहे रह गए होंगे
ये आंसू किसी पत्थर पे भी पड़े तो
शायद फूल खिल आएं
ये आंसू मिट्टी में जा मिले तो खाद बन जाए
ये आंसू पलकों से उतरे तो हवाएं
शोर मचाने लगे कि रोया है किसी पुरुष ने
किसी स्त्री के लिए
सूखते हुए प्रेम को सींचने के लिए
वो स्त्री भी कितनी सौभाग्यशाली होगी
जो सहेज लेती होगी
उन आंसुओं को अपने दामन में
जैसे ब्रह्मांड के समस्त नक्षत्रों को पनाह दे दी हो..
सृष्टि में प्रेम बचाए रखने के लिए…