आवरण: मनीष कुमार यादव

आँखों का अस्तित्व
हर तरह की सत्ता के लिए
ख़तरा है
इसलिए आये दिन आँखें
फोड़ दी जाने की ख़बरें हैं

इससे पहले आपकी भी आँखें
फोड़ दी जाएँ
नज़र व धूप के चश्मे ख़रीदिये

धूप के चश्मे पूँजीवादी सभ्यताओं का ईजाद हैं
और फूटती आँखें हमारे समय का सच

ये चश्मे हमें दुनिया में सबकुछ सही होने का भ्रम कराते हैं
दिखाते हैं कि अब भी हमारे पाँव के नीचे ज़मीन बाकी है

किन्तु इस दुनिया ने आवरण ओढ़ रखे हैं

हमने मूर्तियों को नैतिकताओं का आदर्श बताया
और इन्ही मूर्तियों के अपक्षय से सहज होते गए

पलक झपकने के पहले हम
कुछ और होते हैं
पलक झपकने के बाद
कुछ और
परिवर्तन अनिमिष होते हैं

व्यथा ये है कि
त्रासदियाँ अनिमिष नहीं होतीं
ये त्रासदियों का दौर है
और हम निमित्त
शून्य हमारी संवेदनाओं का नियतांक
रिक्तता
सभ्यताओं
का आवृत्त सच
और त्रासदियाँ
इन्हीं रिक्तताओं को भरने की असफल चेष्टाओं का
प्रतिफल

ताम्रिकाओं पे नहीं लिखे गए
विवर्तनिक परिसीमन
सकरुण अवसान
परिष्कृत वंचनाएँ
सहस्त्राब्दिओं का तिमिर
नैतिकताओं का आयतन

प्रतिध्वनियों के अतिशय में हम नहीं सुन पाए
नेपथ्य का कोलाहल
प्रायिकताओं का अपवर्तनांक हमें भावशून्यता तक ले आया

और आज जब
आँखें फोड़ना राज्य प्रायोजित है
तो बेहतर यही है कि
नज़र व धूप के चश्मे ख़रीदिये

मनीष कुमार यादव