दो पत्थर- मुकेश चौरसिया

दो पत्थर,
एक मंदिर के भीतर पूजित,
एक बाहर परित्यक्त उपेक्षित,
भीतर वो जो मूरत जैसा,
देवपुरुष की सूरत जैसा
ऊबड़-खाबड़ सा, जो बाहर,
लज्जित अपनी हालत पर
बाहर वाले ने कहा एक दिन अंदर वाले से यूँ
एक चट्टान के टुकड़े हम, फिर इतना अंतर क्यूँ?
हर दिन तुम पर फूल चढ़ाए जाते हैं,
सम्मुख तुम्हारे लोग आरती गाते हैं,
दीपक तुम पर रोज फिराया जाता है,
गंगाजल से नित्य नहलाया जाता है,
तुम प्रतिष्ठित नित्य अभिषिक्त
लोग तुम्हारे आगे होते हैं नतमस्तक,
आह! कहाँ है मेरी ऐसी किस्मत
तब मंदिर के भीतर से गूँजे स्वर
जो फैल गए दसों दिशाओं पर
हाँ मैं पूजित, तुम उपेक्षित
बात तुम्हारी सत्य, पर किंचित
तुम पर भी तो नित्य बरसते फूल हरसिंगार के
स्वयम चांद सूरज जाते तुम्हारी आरती उतार के
आती है पावस जो तुम पर नेह बरसाती है
और निस्तब्ध निशा भी गीत तुम्हारे गाती है
राह चलते मुसाफिर तुम पर बैठ तनिक सुस्ताते हैं
और नन्हे बच्चे कभी तुम पर उछलकूद मचाते हैं
देखा करता हूँ मैं भी तुमको देर तक,
आह कहाँ मेरी ऐसी किस्मत!
क्या पाया मैंने निज स्वरूप खोकर,
अपने ही लोगों में रह गया कैद होकर,
कोई यात्री उनकी बातें सुनकर,
रुक गया वहीं ठिठक कर,
कहने को तो थे वे पत्थर
रखते थे दोनों हृदय मगर
रखते थे दोनों हृदय मगर

-मुकेश चौरसिया
गणेश कॉलोनी,
केवलारी, सिवनी